Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 411
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३६५ लाते हैं। सूक्ष्मकायिक जीव न किसी से रुकते हैं, और अन्य किसी को रोकते हैं, वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। पृथ्वीकायिक जीव वे हैं-~-जो पृथ्वीकाय नामक नाम-कर्म के उदय से पृथ्वीकाय में समुत्पन्न होते हैं। उत्तराध्ययन,1 प्रज्ञापना, मूलाचार और धवला आदि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में पृथ्वीकायिक जीवों की विस्तृत चर्चा है और उनके विविध भेद-प्रभेद भी बतलाए गए हैं। पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर का आकार मसूर की दाल के सदृश होता है । जलकाय स्थावर नाम-कर्म के उदय से जलकाय वाले जीव जलकायिक एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं । जोवाजीवाभिगम' और मूलाचार में ओस, हिम, महिग (कूहरा), हरिद, अणु (ओला), शुद्ध जल, शुद्धोदक और घनोदक की अपेक्षा से जलकायिक जीव आठ प्रकार के बतलाये गये हैं। अग्निकाय स्थावर नाम-कर्म के उदय से जिन जीवों की अग्निकाय में उत्पत्ति होती है, उन्हें अग्नि कायिक एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। उत्तराध्ययन प्रज्ञापना,10 और मूलाचार11 में अग्निकायिक जीवों के अनेक भेद-प्रभेद निर्दिष्ट हैं । सूचिका की नोंक की तरह अग्निकायिक जीवों की आकृति होती है ।12 वायुकाय स्थावर नाम कर्म के उदय से वायुकाय युक्त जीव वायुकायिक एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। उत्तराध्ययन13, प्रज्ञापना14, धवला15 और मूलाचार16 में वायुकाय के जीवों के अनेक भेद प्ररूपित हैं। वनस्पतिकाय स्थावर नाम-कर्म के उदय से वनस्पतिकाय युक्तजीक १ उत्तराध्ययन ३६/७१-७३ २ प्रज्ञापना १/८ ३ मूलाचार २०६-२०६ ४ धवला १/१/१/४२ ५ गोम्मटसार जीवकाण्ड, २०१ ६ तत्त्वार्थ वार्तिक २/१२ ७ जीवाजीवाभिगम सूत्र १/१६ ८ मूलाचार ५/१४ ६ उत्तराध्ययन ३६/११०-१११ १० प्रज्ञापना १/२३ ११ मूलाचार ५/१५ १२ गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा २०१ १३ उत्तराध्ययन ३६/११६ -१२० १४ प्रज्ञापना १/२६ १५ धवला १/१/१/४२ . १६ मूलाचार ५/१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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