Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 409
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३६३ इस कथा-ग्रन्थ में, धर्म के आचरणोय अनुकरण को मुख्यतः प्रतिपादित किया गया है। इसलिए, इसे हम, 'धर्मकथा' कहने में संकोच नहीं कर सकते । किन्तु, यही धर्म तो जीवात्मा की असली पूंजी है, सम्पत्ति है । इसके बिना, हर जीवात्मा, सिद्धर्षि की तरह निष्पुण्यक दरिद्री बन जायेगा। अतः इसे 'अर्थकथा' भी मानना चाहिए । परन्तु, यह 'अर्थ' यानो 'धर्म' प्राप्त कर लेना ही, जीवात्मा के लिए सब कुछ नहीं है। बल्कि, 'धर्म' तो उसके लिए एक 'माध्यम' बनता है, सीढी की तरह। जिसका सहारा लेकर, 'मोक्ष' के द्वार तक, जीवात्मा चढ़ पाता है । और, यह 'मोक्ष' ही उसका 'काम'/'इच्छा'/'प्राप्तव्य' होता है। मोक्ष प्राप्ति की कामना किये वगैर, किसी भी जीवात्मा का प्रयत्न, मोक्ष-प्राप्ति के लिए नहीं होता। इस दृष्टि से, इसे 'कामकथा' मानना चाहिए। इस लक्ष्य-प्राप्ति के लिए, अन्य अनेकों अवान्तर कथाएँ, सहयोगी बनी हुई हैं । जिनके द्वारा जीवात्मा की प्रवृत्ति, सांसारिक पदार्थ भोग से हटकर, 'मोक्ष' की ओर उन्मुख हो पाती है । यदि इन अवान्तर कथाओं का प्रसङ्गगत उपदेश/निर्देश/ सूझाव जीवात्मा को न मिले, तो वह, संसारी ही बना पड़ा रह जायेगा। इसलिए, इन अवान्तर सङ्कीर्णकथाओं का अप्रत्यक्ष सम्बन्ध ही सही, किन्तु, मूल्यवान प्रदाय, मोक्ष-प्राप्ति में निमित्त बनता है । इस दृष्टि से, इस कथाग्रन्थ को 'संकीर्ण कथा' भी कहा जाना, अनुचित न होगा। __ इस तरह, हम देखते हैं, कि, 'उपमिति-भव-प्रपंच कथा' हमें सिर्फ जगत् के जञ्जाल से छुड़ाने को ही दिशा नहीं देती, बल्कि, वह यह भी प्रकट करती है कि सब कुछ भूल/छोड़कर, यदि मेरा ही चिन्तन/मनन कोई करे, तो उसको मोक्ष लाभ होने में कोई मुश्किल नहीं आ पायेगी। भव-प्रपञ्च : जैन दानिक व्याख्या उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा का गहराई से अनुशीलन-परिशीलन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस कथा में जीव की आत्म-कथा है। छह द्रव्यों में जीव-द्रव्य चेतन है और पाँच द्रव्य अचेतन/जड हैं। चार्वाक दर्शन ने पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु से चैतन्य की उत्पत्ति/ अभिव्यक्ति मानी है, पर, जैन दार्शनिकों ने उनके मन्तव्य का खण्डन करके आत्मा के सर्वतन्त्रस्वतन्त्र अस्तित्व को सिद्ध किया है। जैन दर्शन में आत्मा का स्वरूप क्या है ? वह इस कथा में स्पष्ट रूप से उजागर हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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