Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 408
________________ ३६२ | जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा उन्हें लाजिमी हो गया । इतना ही नहीं, जो नगर, ग्राम, उद्यान, नदी, पर्वत, महल, गुफाएँ उन्होंने धरती के लोक में वर्णित की, वैसे, ही, अन्तरंग लोक में वर्णन करने का कौशल - सामर्थ्य, उन्हें अपने आप में जुटाना पड़ा | पर, प्रसन्नता की बात यह है कि इस सारे कल्पना - जाल में, सिद्धर्षि की विशाल प्रज्ञा एक ऐसा पैनापन ले आने में समर्थ हुई है, जिसका प्रवेश, शास्त्रों में वर्णित स्वर्ग और नरक आदि चौदहों लोकों में बेरोक-टोक हुआ है । यह, इस कथा - ग्रन्थ से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । हर कथा में, दो वर्ग होते हैं- एक तो नायक, यानी कथानायक का वर्ग, जो पग-पग पर, उसे साहस / सहयोग प्रदान करता है, ताकि वह, अपने लक्ष्य - साधन में सफले हो सके । दूसरा वर्ग वह होता है, जो कथानक के साथ कुछ इस तरह चिपका-चिपका रहता है कि उसके हर प्रगति - कार्य में झट से उपस्थित होकर, कोई न कोई बाधा खड़ी कर देता है । इस दूसरे वर्ग को प्रतिनायक वर्ग कहा जा सकता है । 'उपमिति भव-प्रपंच कथा' में कथानायक तो 'संसारी जीव' हो है, क्योंकि ग्रन्थ के विशाल कथानक का मूल सूत्र, संसारी जीव से, कहीं भी टूटने नहीं पाता । किन्तु, मजेदार बात यह है कि इस कथानायक को लड़ाई जहाँ-जहाँ भी जिस किसी से होती है, या, मित्रता और उठनाबैठना जिनके बीच होता है, वे सबके सब दिखावटी हैं । यह निष्कर्ष. तब निकल पाता है, जब इस सारे कथानक पर, दार्शनिक बुद्धि से गौर किया जाये । क्योंकि पूरे - ग्रन्थ में, जो परस्पर संघर्षरत दो पक्ष / प्रतिद्वन्द्वी बतलाए गए हैं, वे हैं -- सत् - प्रवृत्ति और असत्प्रवृत्ति । यानी, सदाचार और दुराचार | दुराचार पक्ष की ओर से, कई बार यह कहा गया है कि हमारा असली शत्रु 'संतोष' है, 'सदागम' है। जो, 'संसारी जीव' को उनके चंगुल से मुक्त करके 'निवृत्ति नगरी' में पहुँचा देता है । 'कर्मपरिणाम' के प्रमुख सेनापति 'महामोह' और उसके पक्ष / परिवार के 'अशुभोदय' आदि, अपनी सेना के साथ, संतोष' को पराजित कर समूल नष्ट करने के लिए प्रयासरत दिखलाये गये हैं । एक भी प्रसङ्ग, ऐसा पढ़ने को नहीं मिला, जिसमें, यह स्पष्ट हुआ हो कि 'महामोह' की सेना ने, 'संसारी जीव' को पराजित करने के लिए कूच किया हो । 'संसारी जीव' को तो कुछ इस तरह दिखलाया गया है, जैसे, वह 'संतोष' आदि का निवास स्थान महल / किला हो । यह गुत्थी, पाठक की बुद्धि को चकराये रहती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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