Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 395
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३७६ गति' नामक प्रदेश के 'महाविदेह' बाजार में बैठे हुए हैं। आज एक 'संसारी जीव' चोर,चोरी के माल के साथ पकड़ा गया है । दुष्टाशय आदि उसे पकड़कर वधस्थल की ओर ले जा रहे हैं, ताकि उसे मृत्युदण्ड दिया जा सके । उसे, यह मृत्युदण्ड, 'कर्मपरिणाम' महाराज ने, अपनी राजमहिषी 'कालपरिणति', और 'स्वभाव' आदि से विचार-विमर्श करने के पश्चात् दिया है। आचार्यश्री की बात सुनकर, सुललिता आश्चर्य में पड़ गई । महाभद्रा की ओर देखकर वह बोली-'भगवति ! हम तो शंखपुर में बैठे हैं। यह तो मनुजगति नहीं हैं ? और इस समय, चित्तरम उद्यान में हैं, यह 'महाविदेह' बाजार कैसे हो गया ? यहाँ के राजा श्रीगर्भ हैं, 'कर्मपरिणाम' नहीं। फिर, आचार्य प्रवर यह सब केसे कह रहे हैं ?' यह सुनकर आचार्यश्री बोले-~-'धर्मशीला सुललिता ! तुम 'अगृहीत संकेता' हो । मेरी बात का गूढ़ अर्थ, तुम्हें समझ में नहीं आया।' सूललिता सोचने लगी- आचार्य भगवन् ने तो मेरा नाम ही बदल दिया, दूसरा नाम कर दिया ।' कुछ भी न समझ पाने के कारण वह चुप होकर बैठी रह गई। महाभद्रा ने आचार्यश्री का संकेत स्पष्टतः समझ लिया। वे जान गयीं कि किसी पापी संसारी जीव का आयुष्य क्षीण हो चुका है और वह अपने पूर्व निर्धारित मृत्युस्थल पर पहुँचने का संयोग-उपक्रम कर रहा है। फलतः महाभद्रा का मन, उसके नरक-गमन के प्रति, दयाभाव से ओत-प्रोत हो गया । वे बोलीं- 'भगवन् ! यह चोर, मृत्युदण्ड से मुक्त हो सकता है क्या ?' 'जब उसे तेरे दर्शन होंगे और वह हमारे समक्ष उपस्थित होगा, तभी उसकी मुक्ति हो सकेगी।' 'क्या मैं उसके सम्मुख जाऊँ ?' महाभद्रा ने निवेदन किया । 'हाँ, जाओ, इसमें दुविधा क्यों है ?' आचार्यश्री ने अनुमति देते हुए कहा। महाभद्रा उद्यान से बाहर निकलकर राजपथ पर आई और अनसुन्दर चक्रवर्ती को देखकर उसे आचार्यश्री के कथन का आशय बतलाया और कहा- 'भद्र ! 'सदागम' की शरण स्वीकार करो।' महाभद्रा को देखने के कुछ ही क्षणों के बीच अनुसुन्दर को 'स्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454