Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 403
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३८७ इस संसार में प्रत्येक प्राणी के तीन-तीन कुटुम्ब होते हैं। प्रथन प्रकार के कुटुम्ब में-क्षान्ति, आर्जव, मार्दव, लोभ-त्याग, ज्ञान, दर्शन. वीर्य, सुख, सत्य, शौच और सन्तोष आदि कुटुम्बीजन होते हैं। यह कुटुम्ब, प्राणी का स्वाभाविक कुटम्ब है, अनादिकाल से उसके साथ रहता आता है । इस कुटुम्ब का कभी अन्त-विनाश नहीं होता। यह कुटम्ब प्राणी का हित करने में ही सदा तत्पर रहता है। परेशानी की बात सिर्फ यह है कि यह कूटम्ब कभी-कभी तो अदृश्य हो जाता है और फिर प्रकट हो जाता है । उसका छुपना और प्रकट होना, स्वाभाविक धर्म है । यह हर प्राणी के अन्तस् में रहता है । इसकी सामर्थ्य इतनी प्रबल है कि यदि यह कुटुम्ब चाहे तो प्राणी को मोक्ष की प्राप्ति भी करा सकता है। क्योंकि, यह अपने स्वभाव से ही प्राणी को, उसके स्व-स्थान से उच्चता को ओर ले जाता है। दूसरा कुटुम्ब, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, शोक, भय, अविरति आदि का है। यह कूटम्ब, प्राणी का अस्वाभाविक कुटुम्ब है। किन्तु यह दुर्भाग्य की बात हो कही/मानी जायेगी कि अधिकांश प्राणी इसे ही अपना स्वाभाविक कुटुम्ब मानकर उससे प्रगाढ़ प्रेम करने लगते हैं। इसका सम्बन्ध अभव्य जोवों के साथ अनादिकाल से है, जिसका अन्त कभी नहीं होता । कुछ भव्यप्राणियों के साथ भी इसका, अनादिकाल से सम्बन्ध जुड़ा होता है, किन्तु उसका अन्त निकट भविष्य में होने की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं । यह कुटुम्ब प्राणो का, एकान्ततः अहित ही करता है। किन्तु, यह भी जब कभी प्रथम कुटुम्ब की तरह अदृश्य हो जाता है, छुप जाता है और फिर से प्रकट हो जाता है। यह भी प्राणो के अन्तरंग में निवास करता है और उसे सांसारिक विषय-भोगों में प्रवृत्त कराकर उसके भव-विस्तार में प्रमुख निमित्त बनता है। क्योंकि, इसका स्वाभाविक धर्म है-प्राणी को स्वस्थान से अधःपतित बनाना और दुर्गुणों के प्रति प्रेरित करना। तीसरा कुटुम्ब/परिवार प्राणो का अपना शरीर, उसे पैदा करने वाले माता-पिता, और भाई-बहिन आदि अन्य कुटुम्बीजनों का होता है । यह कुटुम्ब, स्वरूप से ही अस्वाभाविक है । और, सादि सान्त है। इसका प्रारम्भ अल्पकालिक होता है, फलतः, इसका अस्तित्व पूर्णतः अस्थिर रहता है। यह कुटुम्ब, भव्य प्राणी को तो कभी हितकारी और कभी अहितकारी भी होता है। इसका धर्म उत्पत्ति और विनाश है। यह, हमेशा बहिरंग प्रदेश में ही प्रवर्तित होता है। भव्य प्राणी को, यह संसार और मोक्ष, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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