Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 405
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३८६ करुण आदि रसों का, छहों ऋतुओं का नगर, पर्वत, वन, नदी आदि प्राकृतिक दृश्यों का सजीव चित्रण भी है। मनुष्य के जन्म, जन्मोत्सव ओर शिक्षा-दीक्षा ग्रहण से लेकर, उसके विवाह आदि संस्कारों का, उसके पिता-भाई आदि दायित्वों के निर्वाह का और सम्मिलित परिवार के रूप में एक गृहस्थी का, आचरणोय क्या होना चाहिए ? परिवार, समाज और अपने देश के प्रति उसके क्या-क्या कर्त्तव्य हैं ? समाज में किस तरह की व्यावहारिक व्यवस्थाएँ होनी चाहिए? इन सारे पक्षों पर सिद्धर्षि ने अपनी सूक्ष्मेक्षिका से प्रकाश डाला है। और, उन के समकालीन समाज में किस तरह का वातावरण था, कौन-कौन सी करीतियाँ, रूढ़ियाँ थीं जो सामाजिक नैतिक-उत्थान में बाधा बनी हुई थीं, इस पक्ष को भी उन्होंने बिना कोई छिपाव किये, अपनो रचना में दर्शाया है। जैन धर्म/दर्शन में आस्था रखने वाले सामाजिकों/नागरिकों को श्रावक श्राविका के लक्षण, दायित्व और कर्तव्यों को भी स्पष्ट करने में उनसे चूक नहीं होने पाई। हिंसा, चोरी, लूटपाट, ठगी, परवञ्चना और दुराचार जैसे घिनौने रूपों का खुलासा करने के साथ-साथ सच्चाई, ईमानदारी, परोपकारिता और दोन-दुःखियों के प्रति हमदर्दी जैसे सात्विक गुणों की वर्णना में भी वे पीछे नहीं रहे। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सिद्धर्षि ने, अपने समकालीन समाज की दुखती नस को छुआ है, तो उसका उपचार/इलाज भो बतलाया है कि कैसे उसे दूर करके समाज को स्वस्थ बनाया जा सकता है । इन सारे वर्णनों के कुछ नमूने पुरुष प्रकार (पृष्ठ २०१), नारी स्वरूप (पृष्ठ ३८२) और लक्षण (पृष्ठ ४७४), राजारानी वर्णन (पृष्ठ १४८), मंत्रीवर्णन (पृ० १५८), राज्य की सुख दुखता (पृ० ५८१), दुर्जन दोष (पृ० ११२), धनगर्व (पृ० ४०४), पाखण्डो भेद (पृ० ३६५), मद में अंधापन (पृष्ठ ३३) आदि देखे जा सकते हैं । संसारी को मूल स्थिति (पृष्ठ २८६), शोक का स्वरूप (पृ० ४०२, ६६६), संसारी जीव का स्वरूप (पृ० ५७६), मोह की प्रबलता (पृ० ७२६), महामोह (पृ० १६१), मिथ्या अभिमान (४००), भोगतृष्णा (१७४), राग की विविधिता और वेदनीय के तीन प्रकार (पृ० ३६७), अज्ञान से उत्पन्न होने वाले दोष (पृष्ठ १७६), क्रोध, मान आदि कषायों का स्वरूप (पृ. ३७३), मिथ्यादर्शन (पृ० ३५९), मिथ्याभिमान से बनने वाली हास्यास्पद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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