Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 398
________________ ३८२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा ___ सदागम के इशारे से, सब लोग उठकर चले गये। इन लोगों के साथ, प्रज्ञाविशाला भी उठकर जाने लगी, तो सदागम ने उसे वहीं बैठे रहने के लिए कहा । सुमति राजपुत्र भी वहीं बैठा रहा । पश्चात्, अगृहीत सङ्केता को लक्ष्य कर के, वह 'संसारी जीव' चोर, अपना वृत्तान्त सुनाने लगा। मेरी पत्नी, 'भवितव्यता' मुझे 'असंव्यवहार' नगर के 'निगोद' नामक एक कमरे में से निकाल कर 'एकाक्षनिवास' नगर में ले आती है। यहाँ मुझे 'वनस्पति' नाम दिया जाता है । यहाँ, मैं 'साधारण शरीर' नामक कमरे में मदमत्त, मूच्छित, मृत की तरह श्वासें लेता पड़ा रहा। फिर कुछ दिनों बाद, यहाँ से निकाल कर, एकाक्षनगर में ही किसी दूसरे मुहल्ले के दूसरे विभाग में 'प्रत्येकचारी' के रूप में असंख्यकाल तक रखा। ""इसी तरह के वृत्तान्त सुनाता हुआ वह, अपने वर्तमान जन्म तक आ पहँचता है। इन आरम्भिक घटनाक्रमों के वर्णन में, जो द्वैविध्य, शुरू से ही कथानक में उभरता है, उसका रहस्य, कथा के आठवें प्रस्ताव में पहुंचने पर खुलता है। इस तरह, इस महाकथा का लम्बा-चौड़ा कथानक, दूसरे प्रस्ताव से शुरू होता है और आठवें प्रस्ताव के प्रारम्भ तक अपनी रहस्यात्मकता को बनाये रखता है। प्रथम प्रस्ताव, पोठ बन्ध में, ग्रन्थकार ने अपनी निजी कथा-व्यथा लिखी है। इस आत्म-कथा का महत्व, इसलिए मूल्यवान बन गया कि बह भी रूपक-पद्धति में, रहस्यात्मक-प्रतीक शब्दावली द्वारा व्यक्त की गई। जिससे, मूलकथा की रहस्यात्मकता में पहुँचने के पूर्व ही, पाठक का प्रौढ मन,कथाकार की प्रतीकात्मक शब्दावली के गूढ आशयों को समझने की निपूणता प्राप्त कर लेता है। बाद के प्रस्तावों में वर्णित कथाक्रम का सार-संकेत इस प्रकार है। तीसरे प्रस्ताव में-जयस्थल नगरी के राजा पद्म और उसकी महा रानी नन्दा के बेटे राजकुमार नन्दिवर्द्धन के रूप में, अनुसुन्दर का जीव, जन्म लेता है । नन्दिवर्द्धन को 'क्रोध' और 'हिंसा' के चंगुल में फंस जाने पर, किस-किस तरह की दारुण व्यथाएँ सहनों पड़ी, और किन-किन भबों में भ्रमित होना पड़ा, यह सब बतलाया गया है। मनुजगति नगरी के भरत प्रदेश में क्षितिप्रतिष्ठ नगर के राजा 'कर्मविलास' की दो रानियाँ थींशुभसुन्दरी और अकुशलमाला। शुभसुन्दरी का पुत्र है-'मनीषी' और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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