Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 375
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३५६ होने के साथ-साथ विशेष कौतूहलपूर्ण भी हैं। इसके दो संस्करण उपलब्ध होते हैं- १. शिवदास कृत संस्करण (१२०० ई.) गद्य-पद्यात्मक है । और जम्भल दत्त का केवल गद्यमय है। 'सिंहासन द्वात्रिंशिका' भी इसी शैली और परम्परा की रचना है । इसके कथानक में, विक्रम के सिंहासन की बत्तीस पुत्तलिकाएँ, राजा भोज को एक-एक कहानी सुनाती जाती हैं और कहानी सुनाने के बाद उड़ जाती हैं । इस रचना के दो उपनाम-'द्वात्रिंशत्पुत्तलिका' और 'विक्रमचरित' मिलते हैं । भिन्न-भिन्न प्रकारों वाले इसके तीन अलग-अलग संस्करण प्राप्त होते हैं। इनमें से एक गद्य में, दूसरा पद्य में, और तीसरा गद्य-पद्य मयी भाषा-शैली में है। इसका रचना-काल भोज के समय (१०१८-१०६३) के बाद का ठहराया गया है । दक्षिण भारत में इसका अधिक प्रसिद्ध नाम 'विक्रमार्कचरित है। विक्रमादित्य से सम्बन्धित कथाओं के कुछ अन्य ग्रन्थ भी प्राप्त होते हैं । ये हैं-अनन्त का 'वीरचरित', शिवदास की 'शालिवाहन कथा' और भट्ट विद्याधर के शिष्य आनन्द की 'माधवानल कथा'। एक अज्ञात लेखक का 'विक्रमोदया' तथा एक जैन संकलन-'पञ्चदण्डच्छत्र प्रबन्ध' । ___'शुक सप्तति' में, कार्यवशात् घर छोड़कर गये मदनसेन की प्रियतमा का मन बहलाने के लिये, उसका पालतू तोता, हर रात्रि में एक मनोरंजक कहानी उसे सूनाता है। ७० दिनों के बाद मदनसेन घर लौटता है। इस तरह, तोते द्वारा कही गई कहानियों के आधार पर, इसका नामकरण किया गया है। इसका रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी के पूर्व का अनुमानित किया गया है। इसके भी तीन संस्करण प्राप्त होते हैं। मैथिली कवि विद्या पति की पन्द्रहवीं शताब्दी की रचना 'पुरुष परीक्षा' में नीति और राजनीति से सम्बन्धित कथाएँ हैं। शिवदास के 'कथार्णव' की पैंतीस कथाएं चोरों और मूों की कथाएँ हैं। अनेक कवियों की मनोरंजक दंतकथाएँ 'भोज-प्रबन्ध' में संग्रहीत हैं। इसी परम्परा के संग्रह ग्रन्थों में 'आरण्ययामिनी' और ईसब्नीति कथा' को गिना जाता है । चारित्रसुन्दर का 'महिपाल चरित'1 चौदह सर्गों का कथा ग्रन्थ है । इसका रोचक कथानक पन्द्रहवीं शताब्दी में रचा गया, ऐसा अनुमान किया १ श्री हीरालाल हंसराज, जामनगर द्वारा १९०६ में सम्पादित । द्रष्टव्य-विन्टरनित्ज : ए हिस्ट्री आफ इन्डियन कल्चर-भाग-२, पृष्ठ-५३६-५३७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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