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श्री पार्श्वनाथ भगवान का चरित्र
वैर का दावानल जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में रमणीय, मनोहर, श्वेत शिखरों से युक्त मन्दिरों से सुशोभित पोतनपुर नामक एक अद्भुत नगरी थी, जहाँ नित्य ज्ञान-गंगा प्रवाहित होती थी। उक्त नगरी धर्म की जननी थी। वहाँ अनेक सामन्त राजाओं से सुसेवित, शूरवीर एवं प्रतापी अरविन्द नामक नरेश थे, जिनकी रूप-यौवन-सम्पन्न, उत्तम गुणों से युक्त, अद्भुत लावण्यवती, हिम तुल्य शीतल एवं सुकोमल रति सुन्दरी नामक रानी थी और बुद्धि का सागर मतिसागर नामक एक चतुर महामात्य था।
प्रथम भव महाराजा अरविन्द की नगरी में विश्वभूति पुरोहित ब्राह्मण निवास करता था, जो राजा का अत्यन्त प्रेमपात्र था । उसके अत्यन्त विनयी एवं शीलवती अनुरुद्धा नामक पत्नी थी। समय व्यतीत होने पर उस पुरोहित के घर विनयी, गुणवान एवं रूपवान कमठ एवं मरुभूति नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। पुरोहित परिवार जिनेश्वर भगवान का अनन्य उपासक था । एक बार संभूत नामक जैन मुनिवर के सम्पर्क से उन्हें नौ तत्त्वों एवं कर्मग्रन्थ का ज्ञान प्राप्त हुआ । 'संसार असार है, जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का पालन करने में ही हमारा कल्याण है, उसके अतिरिक्त हमारा कल्याण नहीं है' - ऐसी उनकी अटूट मान्यता थी। वे निश्चय पूर्वक यह मानते थे कि भगवान के वचनों के अतिरिक्त सव मिथ्या है । इस प्रकार भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए वे संसार में अपना जीवन यापन करते थे। देश के रक्षक सैनिकों की तरह वे चतुर थे और कर्म राजा के सैनिकों से वे अपनी आत्मा की सुरक्षा करते थे।
अप्रमत्तता पूर्वक धर्माराधना करते हुए वे बड़े हुए और विश्वभूति विप्र ने अपने पुत्रों को वयस्क जानकर दो कुलीन, रूपवती एकं कमल-दल तुल्य कमनीय कुमारियों के साथ उनका विवाह कर दिया ।
कमठ की पत्नी का नाम था वरुणा तथा मरुभूति की पत्नी का नाम था वसुन्धरा । विश्वभूति ने संसार को असार समझ कर, जीवन को क्षण-भंगुर मानकर संसार के समस्त प्राणियों के साथ क्षमापना करके गुरुदेव से भव-आलोचना लेकर अनशन किया। वह परमेष्ठियों के ध्यान में लीन हो गया, तन्मय हो गया और शुभ ध्यान में मृत्यु प्राप्त करके सौधर्म देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुआ | उसकी पत्नी सति अनुरुद्धा भी