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म्यते ! अर्थवशात् विभक्तिपरिणामो भवति ॥ ननुच नृलोके नित्यगतिवचनादन्यत्रावस्थान ज्योतिष्काणां सिद्धम् अतो बहिस्वस्थिता इति वचनमनर्थकमिति । उन्न । किं कारण ? नृलोका. दन्यत्र वहिज्योतिपामस्तित्वमवस्थानं चासिद्धम् । अतस्तदुभयसि
द्यर्थ बहिरवस्थिता इत्युच्यते ॥ विपरीतगतिनिवृत्यर्थं कादाचित्कगविनिवृत्यर्थच सूत्रमारब्धं ॥
हिंदी पचनिका
आगें मनुष्य लोकतै बाहिर ज्योतिष्क अवस्थित हैं । ऐसा कहन. सत्र कई हैं___ अर्थात्-"बहि:" कहिये मनुष्यलोकतै बाहिर ते ज्योतिष्क अवस्थित कहिये गमन रहित हैं इहां कोई कई है, पहले सूत्रमें कहा है नो मनुष्य लोकतै ज्योतिष्क देवनिके नित्यगमन है । सो ऐसा कहनेत यह जाना जाय है, जो यातै बाहिरके गमन नाहीं । फेरि यह सूत्र कहना निष्प्रयोजन है।
ताका समाधान-जो इस सूत्रत मनुष्यलोकतै बाहिर अस्तित्वभी जाना जाय है । भवस्थान भी जाना जाय है, यात दोऊ प्रयोजनकी सिद्धिके मर्थि यह सूत्र है अथवा अन्य प्रकार करि गमनका भभावके भर्थि भी यह सुत्र जानना ॥
श्रीमद्भहाकलंक देव कृत राजवार्तिकसे अध्याय ४ में
ज्योतिष्क देवताओंके वर्णन सूत्र और भाष्यज्योतिष्काः सूर्याचंद्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२॥
[श्रीउमास्वामिकृत ] द्योतनस्वभावत्वाज्ज्योतिकाः ॥ १॥-द्योतनं प्रकाशनं तत्स्वभावत्सादेषां पंचानामपि विकल्यानां ज्योतिष्का इतीयमन्वर्था सामान्यसंज्ञा । तस्याः सिद्धिः