Book Title: Jain Jyotish
Author(s): Shankar P Randive
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 114
________________ ( ९४ ) सहिहिदपदमपरिहिं णवगुणिदे चक्खुफा सअद्वाणं || तेणूणं णिसहाचलचावद्धं जपमाणमिणं ॥ ३८९ ॥ पष्टिहित प्रथमपरिधौ नवगुणिते चक्षुःस्पर्शाचा ॥ तेनोनं निपधाचलचापार्धे यत् प्रमाणमिदम् || ३८९ ॥ अर्थः-- प्रनम परिधिका प्रभाणको साठिका भाग देह नवकरि गुणिए इतनां चक्षुस्पर्शमध्वान है। तहां साठि मुहूर्तनिका प्रथम परिधि तीन लाख पंद्रह हजार निवासी योजन प्रमाण गमन क्षेत्र होइ तौ नव मुहूर्तनिका कितना गमन क्षेत्र होइ ऐसें प्रथम परिधिकों साठिका भाग ही नवका गुणाकार भया । इनकी तीन करि अपवर्तन किए वीसका भागहार तीनका गुणाकार हो है । तहां प्रथम परिधिक ३१५०८९ वीसका भाग देइ ३१५०८९ तीनकरि गुणिए २० ९४५२६७ तब अधराशि सैंतालीस हजार दोयसैतरे सठि योजन भर सातका वीसवां भाग मात्र चक्षुस्पर्शाध्वान हो है । भावार्थ:- अयोध्या नाम नगरकावासी महंत पुरुषनिकरि उत्कृष्टपने सैंतालीस हजार दोयसै तरेसठि योनन अर सातका बीसवाँ भाग मात्र क्षेत्रका अंतराल होतें सूर्य देखिए हैं इतना ही चक्षु इंद्रीका उत्कृष्ट विषय हैं याहीका नाम चक्षुस्पर्शाध्वान है । बहुरि इहां अठारह मुहूर्तका जु दिन ताका आधा भएं मध्यान्हविषै सुर्य अयोध्याकी बरोबरी आवे भर इहां उदय होता सूर्यका ग्रहण है तातें नवका गुणकार किया है । पर परिधिविषै भ्रमणकाल साठि मुहूर्त है तातें साठिका भागहार किया है । बहुरि निषेध नामा कुलाचल ताका चापका प्रमाण एक लाख तेईस - हजार सातसै अडसठि योजन अर अठारह उगणीसवां भाग ताका आधा इकसठ हजार आठसै चौरासी योजन पर नवका उगणीसवां

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