Book Title: Jain Jyotish
Author(s): Shankar P Randive
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 159
________________ (१३९ ) अस्सिणि पुण्णे पव्वे णवम पुण पंचजुद सए पव्वे ।। तीते छट्टि तिहीए णक्खत्ते उत्तरासाढे ॥ ४२५ ॥ अश्विनी पूर्णे पर्वणि नवमं पुनः पंचयुत शतेपु पर्वेषु ।। अतितेपु षष्टी तिथी नक्षत्रे उत्तरापाढे ॥४२५ ।। . अर्थ:--सो आठवां विपुप अश्विनी नक्षत्र होते पूर्ण जो अमावस्या तिडविर्षे हो है । बहुरि नवमां विपुप एकसौ पांच वर्ष व्यतीत भएं षष्ठी तिथिचि उत्तरापाढ नक्षत्र होते हो हैं ॥ ४२५ ॥ चरिमं दसम विसुपं सत्तरहसुत्तर सएसु पव्वेसु ॥ तीदेसु बारसीए जाइति उत्तरगफग्गुणिए ॥ ४२६ ।। चरम दशमं विपुर्व सप्तदशोत्तर शतेषु पर्वेषु ॥ : अतीतेषु द्वादश्यां जायते उत्तराफाल्गुन्याम् ॥ ४२६ ॥ मर्थः- अंतका दशवां विपुप एकसौ सतरह पर्व व्यतीत भएं द्वादशी तिथिविर्षे उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र होते हो है ॥ ४२६ ॥ आगें विपुपविर्षे पर्व वा तिथि स्थापनकौं सूत्र कहे है।विगुणे सगिइसुपे रूऊणे छग्गुणे हवे पव्वं ।। तप्पबदलं तु तिथी पवट्टमाणस्स इसुपस्स ।। ४२७ ॥ द्विगुणे स्वकेटविपुपे रूपोने पड्गुणे भवेत् पर्व ॥ तत्पवदलं तु तिथि: प्रवर्तमानस्य विपुवस्य ॥ ४२७ ॥ अर्थः-- अपना इष्ट विपुप नेथवा होइ तीह प्रमाणको दुणाकरिएं तामैं एक घटाइए बहुरि अवशेषकों छइ गुणा किएं पर्वनिका प्रमाण आवै है । बहुरि तिस पर्व प्रमाणका आधा सो प्रवर्तमान विवक्षित विपुपका तिथि प्रमाण हो है । तीह पर्वका आधा प्रमाण पंद्रहत अधिक होइ तो पंद्रहका भाग दिएं जो लब्ध प्रमाण होइ सो तो पर्व संख्याविर्षे जोलिए अर अवशेष रहै सो तिथिका प्रमाण हो है । इहां उदाहरण इष्ट

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