Book Title: Jain Jyotish
Author(s): Shankar P Randive
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 166
________________ : अभिजिन्नवस्वातिः पूर्वोत्तरा च चंद्रस्य प्रथममार्गे | - तृतीये मघा पुनर्वसु सप्तमे रोहिणी चित्राः ॥ ४३७॥ . अर्थः- अभिजित आदि नव सो अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, भरणी, अर ए मंत्र स्वाति, पूर्वाफागुनि, उत्तराफाल्गुनि ए बारह तो चंद्रमाके प्रथम मार्ग विर्षे विचरे हैं । चंद्रमाका प्रथम अभ्यंतर वीथीरूप परिधि तीहंविर्षे भूषण करे हैं। ऐसे ही तीसरा मार्गवि मघा पुनर्वसु ए दोय नक्षत्र विचरै हैं । सातवां मार्गवि रोहिणी चित्रा एं दोय नक्षत्र विचरें . . छहमदसमेयारसमे कित्तिय: विसाह अणुराहा: जेष्टा कमेण सेसा पण्णारसमम्हि अहेव ।। ४३८॥ . पृष्ठाटमदशमैकादशे कृत्तिका: विशाखा अनुराधा ।। ज्येष्ठा- क्रमेण शेषाणि पंचदशे अष्टैव ।।-४३८ ॥ अर्थः- छट्टा मार्गविषै कृत्तिका आठवांविष विशाखा दशवांविर्षे अनुराधा ग्यारवांविर्षे ज्येष्ठा क्रमकरि विचर हैं। अवशेष आठ . नक्षत्र पंद्रहवां अंतका मार्गके ऊपरि विचर हैं ॥ ४३८ ॥ ते शेष पाठ नक्षत्र कौन सो कहैं हैं:-- ..... । हत्थं मूलतियं विय मियसिरदुग पुस्सदोणि अवग। अंठपहेणखत्ता तिहतिहु वारसादीया ॥ ४३९को हस्त मूलत्रयं अषि-मृगशीपादिकं पुष्यद्वयं अष्टैव . अष्टपथे नक्षत्राणि तिष्ठति हि द्वादशादीनि ॥.४३९। अर्थः हस्त, मूल त्रय कहिए-मूल पूर्वाषाढ, उत्तराषाढा, मृगशीर्षा द्विक कहिए-मृगशीर्षा, आर्हा, पुष्यद्वयं कहिए-पुष्य, आश्लेषा

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