Book Title: Jain Jyotish
Author(s): Shankar P Randive
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 122
________________ (१०२) भावार्थ-- एक योजनकों उगणीसका भाग दीजिए । तहां नवभाग प्रमाण तौं हरि क्षेत्रका चापका प्रमाण पूर्व कह्या तामें अवशेष अधिक जानना । बहुरि इहां नयस्थान कहिए नय नव हैं ताते नवकी जायगा नव ताकौं प्रमाण कहिए प्रमाणका भेद दोय है सो दोयकरि गुणिए तब एक योजनका उगणीस भागवि अठारह भाग प्रमाण होइ । सो इतना निषध पर्वतका चापका प्रमाण पूर्व योजनरूप कया तामें इतना अवशेष अधिक जाननां । बहुरि निषध पर्वतकी पार्श्वभुजा चौदहकी छती एकसौ छिनवै तिहकरि अधिक वीस हजार योजन २०१९६ प्रमाण है।३९४ आगें अयनविर्षे विभागों न करि सामान्यपनैं चार क्षेत्र विर्षे उदय प्रमाणका प्रतिपादनके अर्थि यहु सूत्र कहैं हैं दिणगदिमाणं उदयो ते णिसहे णीलगे य तेसही ।। हरिरम्मगेसु दो दो सूरे णबदससवं लवणे ।। ३९५ ।। दिनगतिमानं उदया ते निपधे नीलके च त्रिपष्ठिः ॥ हरिरम्यकयोः द्वौ द्वौ सूर्ये नवदशशतं लवणे ॥ ३९५ ॥ अर्थ-एक दिन विर्षे चार क्षेत्रका व्यास विर्षे सूर्यका गमनका प्रमाण एक सौ सत्तरिका इकसठियां भाग प्रमाण कह्या था सो इतना दिन गति क्षेत्रविर्षे जो एक उदय होइ तौ चारक्षेत्रका पांचसै दशयोजनवि केते उदय होइ । ऐसें किएं लब्ध प्रमाण एकसै तियासी उदय आए। बहुरि पर्यंत विर्षे चारक्षेत्रवि अवशेष सूर्य विब करि रोक्याहुवा आठतालीस इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र तिहविः एक उदय है ऐसे मिलि एकसौ चौरासी उदय है । जाते एक एक वीथी प्रति एक एक उदय संभवैहै । तहां निषध नीलविर्षे प्रत्येक तरेसठि अर हरिरम्यक क्षेत्रविबै दोय होय अर लवण समुद्रविष एकसौ उगणीस उदय हैं।

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