Book Title: Jain Jyotish
Author(s): Shankar P Randive
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 137
________________ (११७) आगे कहे जु ए गगनखण्ड तिनकों इकटेकरि चंद्रमा सूर्य नक्षत्रनिकी परिधिवि भ्रमण कालका प्रमाण कहैं हैं। दो चंद्राणं मिलिदे अठसयं णवसहस्समिगिलक्खं ॥ सगसगमुहुत्तगदि णभखण्डहिदे परिधिगमुहुत्ता ॥ १०१॥ द्वि चन्द्रयोः मिलिते अष्टशतं नवसहस्र एकलक्षं ॥ स्वक स्त्रक मुहुर्तगति नभाखण्डहिते परिधिमुहर्ताः ॥ ४.१॥ __ अर्थ:-- दोय चंद्रमानिके मिलाए पाठस सहित नव हजार मधिक एक लाख गगनखण्ड हो हैं । कैसे ? जघन्य- मध्य उत्कृष्ट नक्षत्रनिका गगनखण्ड क्रमतें एक हजार पांच दो हजार दश तीन हजार पंद्रह इनको अपने नक्षत्र प्रमाण छह पंद्रह छहकरि गुणे जघन्य नक्षत्रनिके छह हजार तीस मध्य नक्षत्रनिके तीस हजार एकसौ पचास, उत्कृष्ट नक्षत्रनिके मठारह हजार निवै गगनाखण्ड होहैं ।ए खण्ड भर छसै तीस अभिजितके खण्ड मिलाएं चौवन हजार नवसै भए । वहरि एक परिधिविर्षे दोय चंद्रमा हैं। ताते तिनको दुणांकरि मिलाइए तब एक लाख नव हजार आठसै गगनखण्ड परिधिविष हो हैं। बहुरि इन गगनखण्डनिकौं अपना अपना एक मुहूर्तवि. गमनप्रमाण ने गगनखण्ड तिनका भाग दिएं परिधिविष भ्रमण कालका प्रमाण भावै है। कैसे सो कहिए है चंद्रमा सतरहसें अडसठि गगनखण्डनिविर्षे एक मुहूर्तकरि गमन कर तो एक लाख नव हजार आठसै गगनखण्डनिवि केते मुहूर्तनिकरि गमन करे ऐसे त्रैराशिक किएं चंद्रमाका परिधिविर्षे भ्रमण करनैका काल वासठि मुहूर्त आएं, पर एकसौ चौरासीका सतरहसै अडसठिवां भागका आठ कर अपवर्तन किए तेइस मुहूर्तका दोयसै इकईसवां भाग आया । बहुरि याही प्रकार सूर्य अठारहरी तीस गानण्हवि एक

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