Book Title: Jain Jyotish
Author(s): Shankar P Randive
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 143
________________ ( १२३ ) अभिजिंदादित्र्यशीतिंशतं उत्तरायणस्य भवंति दिवसानि || अधिक दिनानां त्रीणि च गतदिवसानि भवंति एकस्मिन् अयने ॥ अर्थ:- अभिजित नादि दै करि पुण्य प्रर्यंत जे जघन्य मध्य उत्कृष्ट नक्षत्र तिनके एक्सौ. तिपासी दिन उत्तरायणके हो हैं ।' बहुरि इनतें अधिक दिन तीन एक अयनविषैः गत दिवस हो' हैं । ४०७ । आगे अधिक दिननिकी उत्पत्ति को कहें हैं एक पहलवणंपडि जदि दिवसिगिसद्विभागमुबद्धं ॥ किं तसीदिसदस्सिदि गुणिदि वे होंति अहियदिशा |४०८ | एकपथलंचनंप्रति यदि दिवसकपष्ठिभाग उपलब्ध ॥ किं व्यशीतिशतस्येंति गुणिते ते भवंति अधिक दिनानि ॥ ४०८ ॥ अर्थ :- वीथीरूप एक सूर्यका मार्ग ताका उलंघनप्रति जो एक दिनका इकसठवां भाग पावैं तौ एक्सौ तियासि मार्गनिका उल्लंघन - प्रति केते दिवस - पावें ऐसें त्रैराशिक करि तह इकसठ करि अपवर्तनः करि गुणें अधिक दिन- तीन होहे । बहुरि एक भयनविषै एकसौ तियासी दिन कैसे हैं सो ऋहिए हैं । - एक मुहूर्त विषै गमन योग्य सूर्यके अठारह से तीस खण्ड भर नक्षल के अठारह पैंतीस खण्ड तातैं सूर्य के नक्षलते पांच खण्ड छोडनें विपैं एक मुहूर्त होइ तौ अभिजित नक्षत्र के छ तींस खण्ड छोडने विषै केते मुहूर्त होइ ऐसें मुहूर्त करि ६३.०: ६३० ताकौं तीसका भाग देह - दिन करने बहुरि भाज्य भाजकक तीस करि अपवर्तन किएं इकईस - ५३० दिनका पांचवां भाग प्रमाण अभिजितका भुक्तिकाल आया । ऐसें दी जघन्य मध्य उत्कृष्ट नक्षत्र श्रवण आदि पुनर्वसु पर्यंत तिनके त्रैराशिक

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