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(१०) गुरुपदार्थ जानते हुए भी पृथ्वी शुन्यमें नीचेको पतित होती है, ऐसा भ्रममूलक विश्वास क्यों करते हो ? ॥ ९॥
किं गुण्यं तव वैगुण्यं यो वृथा कृथाः ॥ भादूना विलोक्यान्हा ध्रुवमत्स्यपरिभ्रमम् ॥ १० ॥
अर्थात्-जब ध्रुव नक्षत्रका परिभ्रमण प्रतिदिन देखते हो तो चंद्रमा, सूर्यादिकी दो २ व्यर्थ कल्पना क्यों करते हो? एक क्या तुझारे वैगुण्यमें न गिना नावे ! ॥ १० ॥
यदिसमामुकुरोदरसन्निभाभगवतीचरणीतरणिः क्षितेः ॥ उपरिदुरगतोऽपिपरिभ्रमन्किसुनरैरमररिव नेक्ष्यते ॥ ११ ॥
अर्थात्-यदि यह पृथ्वी दर्पणोदरकी नाई समतल होती तो इसके ऊपर और दूर भ्रमण करनेसे · सूर्य क्यों देव और मनुष्योंको दृष्ट होगा ? ॥ ११ ॥ यदि निशाजनकः कनकाचलः किमुतदन्तरगः स न दृश्यते ॥ उदगयं ननु मेरुरथांशुमान कथमुदेति च दक्षिणभागके ॥ १२ ॥ ___ अर्थात्--यदि कनकाचलही रात्रि होने में कारण होता है तो सूर्यके भीतर जानेपर वह पहाड क्यों नहीं दीखता ? मेरु उत्तरगोलमें मदृश्य है तो सूर्य किस प्रकार दक्षिणगोलमें दृश्य होगा ? ॥ १२ ॥ भूपंजरस्य भ्रमणालोकादाधारशून्याकुरिति प्रतीतिः ॥ स्वस्थं न दृष्टश्च गुरुक्षमातः खेऽधः प्रयातीति प्रवदन्ति बौद्धाः ।।
अर्थात् - भूमण्डलके भ्रमणको देखकर पृथिवीका आधार रहितता होना बोध होता है एवं पृथिवीके अलग होकर शुन्यमें किसी गुरुपदार्थको अपने आप ठहरने नहीं देखकर बौद्ध लोग कहते हैं कि पृथिवी आकाशके नीचेकी और जाती है ॥ ७ ॥"
( सिद्धांत शि० गोलाध्याय पृ. २७)