Book Title: Jain Jyotirloka
Author(s): Motichand Jain Saraf, Ravindra Jain
Publisher: Jain Trilok Shodh Sansthan Delhi

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Page 29
________________ 20 कारावास (पिंजड़े) से उड़कर स्वतन्त्र विचरण करेगी। आपने १८ वर्ष तक घर में रहते हुए गृह कार्यों में निपुणता प्राप्त की। प्राथमिक शिक्षण के साथ-साथ धार्मिक ज्ञान भी अजित किया। ११ वर्ष की प्रायु में प्रकलंक-निकलंक नाटक देखा था जिसकी अमिट छाप प्रापके जीवन पर पड़ी। विवाह की चर्चा के समय अकलंक ने जो बात कही थी कि "कोचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा पर नहीं रखना ही श्रेयस्कर है" तदनुसार , आपने भी आजीवन ब्रह्मचर्य मे रहने का संकल्प कर लिया। उस समय का निर्णय दृढ़तापूर्वक निभाया। १८ वर्ष की आयु में समय पाकर बाराबंकी में विराजमान प्राचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के दर्शनार्थ लघभ्राता श्री कैलाशचन्द जी के साथ गुरुवर की चरण शरण में आकर सदा-सदा के लिये गृह परित्याग कर दिया। लगभग ६ माह संघ में रहने के अनन्तर मिती चैत्र कृष्ण . १/२००६ को श्री महावीर जी में प्रा. रत्न श्री देशभूषण जी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा धारण कर ली। उन दिनों किसो अल्प वयस्क कन्या द्वारा दीक्षा लेने का वह प्रथम अवसर था। इसो कारण आपके अपार साहस को देखते हुये प्राचार्य श्री ने पापका नाम 'वीरमति' रखा। ___ सौभाग्य से प्रापका प्रथम चातुर्मास प्राचार्य संघ सहित जन्मभूमि टिकतनगर में ही हुआ। तदनन्तर २ वर्ष पश्चात् स्वयं की प्ररुचि एवं चा. च. प्राचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज को सल्लेखना के पूर्व दर्शनार्थ जाने पर उनकी प्रेरणा से रेल, मोटर मादि वाहनों में बैठने का त्याग करके प. पू. प्राचार्य प्रवर श्री वीरसागरजी महाराज के पास पाकर वि. सं. २०१३

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