Book Title: Jain Jyotirloka
Author(s): Motichand Jain Saraf, Ravindra Jain
Publisher: Jain Trilok Shodh Sansthan Delhi

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Page 126
________________ जैन ज्योतिलोंक बत्तीस विदेह क्षेत्र जंबूद्वीप के १ मेरु संबंधि हैं । इस प्रकार ढाई द्वीप के ५ मेरु संबंधी ३२ x ५ = १६० विदेह क्षेत्र होते हैं। ६३ १७० कर्म भूमि का वर्णन इस प्रकार १६० विदेह क्षेत्रों मे १-१ विजयार्ध एवं गंगासिंधु तथा रक्ता रक्तोदा नाम की २-२ नदियों से ६-६ खण्ड होते हैं जिनमें मध्य का आर्य खण्ड एवं शेष पांचों म्लेच्छ खण्ड कहलाते हैं । पांच मेरु सम्बन्धी ५ भरत, ५ ऐरावत ओर ५ महाविदेहों के १६० विदेहः - ५५ १६० - १७० हुये । ये १७० ही कर्म भूमियां हैं । एक राजू चौड़े इस मध्य लोक में असंख्यातों द्वीप समुद्र हैं । उनके अन्तर्गत ढाई द्वीप की १७० कर्म भूमियों में ही मनुष्य तपश्चरणादि के द्वारा कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । इसलिये ये क्षेत्र कर्म भूमि कहलाते हैं । इन क्षेत्रों में काल परिवर्तन का क्रम भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में पहले काल से लेकर छठे काल तक क्रम से परिवर्तन होता रहता है । वह दो भेद रूप हैं, अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी । अवसर्पिणी - (१) सुषमा सुषमा (२) सुषमा (३) सुषमा दुषमा (४) दुषमा सुषमा (५) दुषमा (६) प्रति दुषमा

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