Book Title: Jain Jyotirloka
Author(s): Motichand Jain Saraf, Ravindra Jain
Publisher: Jain Trilok Shodh Sansthan Delhi

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Page 127
________________ वीर ज्ञानोदय बंधमाला पुनः विपरीत क्रम से ही-६ काल रूप परिवर्तन होता रहता है। उत्सर्पिणी - (६) अति दुषमा (५) दुषमा (४) दुषमा सुषमा (३) सुषमा दुषमा (२) सुषमा (१) सुषमा सुषमा । प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय काल में क्रमश: उत्तम, मध्यम तया जघन्य भोग भूमि की व्यवस्था रहती है । चतुर्थ काल से कर्म भूमि शुरू होती है। चतुर्थकाल में तीर्थकर, चक्रवर्ती प्रादि शलाका पुरुषों का जन्म एवं सुख की बहुलता रहती है। पुण्यादि कार्य विशेष होते हैं एवं मनुष्य उत्तम संहनन आदि सामग्री प्राप्त कर कर्मों का नाश करते रहते हैं। पंचमकाल में उत्तम संहनन आदि पूर्ण सामग्री का अभाव एवं केवली, श्रुत केवली का प्रभाव होने से पंचम काल के जन्म लेने वाले मनुष्य इसी भव से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं। १६० विदेह क्षेत्रों में सदैव चतुर्थकाल के प्रारंभवत् सब व्यवस्था रहती है। भरत, ऐरावत क्षेत्रों में जो विजयार्ध पर्वत हैं उनमें जो विद्याधरों की नगरियां हैं एवं भरत, ऐरावत, क्षेत्रों में जो ५-५ म्लेच्छ खण्ड हैं उनमें चतुर्थ काल के आदि से अन्त तक जैसा परिवर्तन होता है वैसा ही परिवर्तन होता रहता है। ३० भोग भूमियां सुमेरुपर्वत के ठीक उत्तर में उत्तर कुरु मोर दक्षिण में देव

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