Book Title: Jain Jyotirloka
Author(s): Motichand Jain Saraf, Ravindra Jain
Publisher: Jain Trilok Shodh Sansthan Delhi

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Page 130
________________ जैन ज्योतिर्लोक ७८+१५६+ १५६+४+४+५२+४+४=४५८ चत्यालय हैं। इन मध्यलोक संबंधी ४५८ चैत्यालयों को एवं उनमें स्थित सर्व जिन प्रतिमानों को मैं मन वचनकाय से नमस्कार करता हूं। ढाई द्वीप के बाहर स्थित ज्योतिप्क देवों का वर्णन मानुषोत्तर पर्वत के बाहर जो असंख्यात द्वोप और समुद्र हैं उनमें न तो मनुष्य उत्पन्न ही होते हैं और न वहां जा ही सकते हैं। मानुषोत्तर पर्वत से परे (बाहर ) आधा पुष्कर द्वाप ८ लाख योजन का है। इस पुष्कराधं में १२६८ सूर्य एवं इतने ही (१२६४) चन्द्रमा हैं। अर्थात्--मानुषोत्तर पर्वत में आगे ५०००० योजन की दूरी पर प्रथम वलय है। इस प्रथम वलय की सूची' का विस्तार ४६००००० योजन है। उसकी परिधि १,४५,४६,४७७ योजन प्रमाण है । इस प्रथम वलय में (अभ्यन्तर पुष्करार्ध मे ७२ मे दुगुने) १. पुष्कराध के प्रथम वलय के इम ओर मे बीच में जंबूद्वीप आदि को करके उस ओर तक के पूरे माप को सूची व्याम कहते हैं । यथामानुपीनार पर्वत के इस ओर मे उम ओर तक ४५ लाख एवं ५० हजार इधर व ५० हजार उघर का मिलाकर ४६ लाख होता है ।

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