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वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला पुनः इस द्वीप में ६४ वलयों के सूर्यों को जो संख्या है उससे दुगुने अगले समुद्र के प्रथम वलय में होंगे । पुनः ४-४ की वृद्धि से बढ़ते हुये अन्तिम वलय तक जायेंगे । वलय भी पूर्व द्वीप से दूगुने ही होंगे । इस प्रकार यही क्रम आगे के असंख्यात द्वीप समुद्रों में सर्वत्र अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप व समुद्र तक जानना चाहिये।
मानुषोत्तर पर्वत से आगे के (स्वयंभूरमण समुद्र तक) सभी ज्योतिर्वासी देवों के विमान अपने-अपने स्थानों पर ही स्थिर हैं, गमन नहीं करते हैं। ___ इस प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रों में असंख्यात द्वीप समुद्रों की संख्या से भी अत्यधिक असंख्यातों सूर्य, चन्द्र हैं एवं उनके परिवार देव-ग्रह, नक्षत्र, तारागण आदि भी पूर्ववत् एक चन्द्र की परिवार संख्या के समान ही असंख्यातों हैं। इन सभी ज्योतिवासी देवों के विमानों में प्रत्येक में १-१ जिन मंदिर है। उन असंख्यात जिन मंदिर एवं उनमें स्थित सभी जिन प्रतिमाओं को मेरा मन वचन काय से नमस्कार हो ।
ज्योतिर्वासी देवों में उत्पत्ति के कारण
देव गति के ४ भेद हैं-भवनवासी, व्यन्तरवासो, ज्योतिर्वासी एवं वैमानिक । सम्यग्दृष्टि जीव वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं । भवनत्रिक (भवन, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव) में उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि ये जिनमत के विपरीत धर्म को पालने वाले हैं, उन्मार्गचारी हैं, निदान