Book Title: Jain Jyotirloka
Author(s): Motichand Jain Saraf, Ravindra Jain
Publisher: Jain Trilok Shodh Sansthan Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 146
________________ ९१ पेन ज्योतिलोक "प्रष्टचत्वारिंशयोजनकषष्टिभागत्वात् प्रमाणयोजनापेक्षया सातिरेकत्रिनवतिशतत्रयप्रमाणत्वादुत्सेषयोजनापेक्षया दूरोस्यत्वाच स्वाभिमुखलंबीवप्रतिभाससिः"। अर्थ-बड़े माने गये प्रमाण योजन की अपेक्षा एक योजन के इकसठ भाग प्रमाण सूर्य है। चूंकि चार कोस के छोटे योजन से पांचसौ गुणा बड़ा योजन होता है । प्रतः अड़तालीस को पांचसो से गुणा करने पर और इकसठ का भाग देने से ३६३३१ प्रमाण छोटे योजन से सूर्य होता है। ___ इस प्रकार ३६३३५ योजन का सूर्य होता है। और उगते समय यहां से हजारों (बड़े) योजनों दूर सूर्य का उदय होने से व्यवहित हो रहे मनुष्यों के भी अपने-अपने अभिमुख प्रकाश में लटक रहे दैदीप्यमान सूर्य का प्रतिभासपना सिद्ध है । इत्यादि। इस प्रकार विद्यानंद स्वामी ने "प्रष्टचत्वारिंशयोजनक वष्टिभाग" का अर्थ योजन करके इसे महायोजन मान कर ५०० से गुणा करके कुछ अधिक ३६३ प्रमाण लघु योजन बनाया है । इसकी हिन्दी भी पं० माणिकचंदजी ने इसी के अनुसार की है। जबकि प्रो० महेन्द्रकुमारजी इस पंक्ति का अर्थ ४८१० योजन कर गये हैं । यदि इस संख्या में लघु योजन करने के लिये ५०० का गुणा करें तो-४०४५००-२४०८९ संख्या पाती है जो कि अमान्य है । तथा यदि में पांच सौ का गुणा करें तो १४५००=३६३११ प्रमाण सही संख्या प्राप्त होती है जो कि श्री विद्यानंद स्वामी ने निकाली है। इसलिये कोई विद्वान्

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152