Book Title: Jain Jyotirloka
Author(s): Motichand Jain Saraf, Ravindra Jain
Publisher: Jain Trilok Shodh Sansthan Delhi

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Page 120
________________ जैन ज्योतिलोक ४२ सूर्य एवं ४२ चन्द्रमा हैं। यहां पर ५१०१६ योजन प्रमाण वाले २१ गमन क्षेत्र अर्थात् वलय हैं। यहां पर भी प्रत्येक वलय में २-२ सूर्य एवं चन्द्र तथा उनकी १८४-१८४ एवं १५-१५ गलियां हैं। मात्र परिधियां बहुत हो बड़ो २ होने से गमन प्रति शीघ्र रूप होता है। धातकी खण्ड की अन्तिम तट वेदो से १६०४७६३६ योजन जाकर प्रथम सूर्य का प्रथम वलय है । वहाँ योजन प्रमाण सूर्य विब के प्रमाण को छोड़ कर आगे ३८०६४६.१६, योजन जाकर द्वितोय सूर्य को प्रथम गलो है। अनंतर इतने-इतने अन्तराल से ही २१ वलय पूर्ण होने पर १६०४७८३३६५ योजन जाकर कालोदधि समुद्र को अन्तिम तट वेदी है। प्रतः २१ वलयों के अन्तरालों का (प्रत्येक ३८०९४६५३६ योजन प्रमाण वाली) तथा वेदी से प्रथम वलय एवं अन्तिम वलय से अन्तिम वेदो का १६०४७५३ योजन प्रमाण एवं २१ बार सूर्य विव के योजन प्रमाण का जोड़ करने मे ८,००००० योजन प्रमाण विस्तार वाला कालोदधि समुद्र है। पुष्कराध द्वीप के सूर्य, चन्द्र पुष्करवर द्वीप १६ लाख योजन का है। उसमें बीच में वलयाकार (चूड़ी के आकार वाला) मानुषोत्तर पर्वत है। मानुषोत्तर पर्वत के इस तरफ ही मनुष्यों के रहने के क्षेत्र हैं। इस मा पुष्करवर द्वीप में भी धातकी खण्ड के समान दक्षिण मोर उत्तर दिशा में दो इष्वाकार पर्वत हैं। जो एक.मोर से

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