Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 01 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 6
________________ जैनहितैषी - अथवा योग्य फल नहीं दे सकतीं । उपयोगी संस्थायें या तो नष्ट होजाती हैं अवस्थाका ढोल पीटते फिरना ही नहीं; परंतु अपने अवगुणोंका परिष्कार करना भी है । ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसमें गुण और दोष - दोनों विद्यमान न हों; चाहे वह कितनी ही उत्तम क्यों न हो। हमारी सामाजिक अवस्थाओंका परिष्कार होना आवश्यक है । हमारे कई जातीय दोष इतने ख़राब हैं कि जबतक वे दूर न किये जायँगे उन्नति हो ही नहीं सकती । इनमें पहला और सबसे भारी तो अकर्मण्यता है पीछा किया है कि राजासे लेकर रंक तक इसके फँदेमें फँसे हुए हैं । भाग्यको हमने इतना प्रबल मान रक्खा है कि मानों हम बिल्कुल मुर्दा हों । हम यह नहीं जानते हैं कि भाग्य हमारे ही द्वारा बनाया गया है। जिस प्रकार चितेरा अपनी इच्छानुसार खिलौने बना सकता है और बने हुओं को मिटा सकता है, उसी तरह हम भी अपने भाग्यको बुरा या अच्छा बना सकते हैं । । इस राक्षसने हमारा ऐसा । उपर्युक्त दोषका कारण यह विदित होता है कि हमारा मानसिक क्षेत्र बहुत ही संकुचित है । हम इस बातका विचार ही नहीं कर सकते कि अमुक कार्यके लिए कितने साधनोंकी आवश्यकता है । कूपमंडूकवत् हम यही समझते हैं कि जो कुछ विचार हमारे हैं वे ही सत्य हैं। विभिन्न विचारके आदमियोंसे हम तत्काल ही लड़ पड़ते हैं सारी उच्च शिक्षाका मूल मंत्र यही है कि विचारोंकी भिन्नताके कारण हमें झगड़ने की कोई आवश्यकता नहीं; उल्टा हमें प्रसन्न होना चाहिए। क्योंकि हमने कमसे कम इतना तो जान लिया कि अमुक विषय पर दूसरे मनुष्य के विचार क्या हैं । विचारोंको उन्नत बनानेकी चेष्टा करना हर एक व्यक्तिका कर्तव्य है । देशाभिमानका मतलब सिर्फ अपने गुणोंको देखना ही नहीं, सिर्फ अपनी उन्नत उन लोगोंको ईर्ष्यासे मत देखो जो तुमसे बढ़े हुए हैं। बड़ी बड़ी पदवियाँ, विशाल इमारतें, सुन्दर बाग बगीचे, सुनहरे रुपहले रथ, बड़े बड़े हाथी घोड़े ये सब क्या हैं ? ये किसको लुभाते हैं ? क्या उसको जिसके पास मौजूद हैं ? नहीं, किंतु उसको जिसके पास नहीं हैं । जिसके ये चीजें हैं, जो इनको नित्यप्रति काम में लाता है उसके लिए ये सस्ती और साधारण चीजें हैं। इनके कारण उसे किसी प्रकारका विशेष आनन्द नहीं होता । जैसा कुछ भाव उस मनुष्यका होता है जिसके पास इतने बहुमूल्य पदार्थ नहीं है वैसा ही भाव उसका होता है। जैसी वेपरवाईसे मैं और आप अपने अपने झोपड़ोंमें चले जाते हैं वैसी ही वेपरवाई से वह अपनी कोठियों और महलों में जाता है। उनमें जो नक्काशी और चित्रकारीका काम हो रहा है अथवा वहाँ जो बढ़िया बढ़िया सामान रक्खा हुआ है उसकी तरफ़ उसका ध्यान भी नहीं जाता। यह ठीक ही है । इन चीज़ोंकी तरफ क्या ध्यान जायगा जब मनुष्यों की दृष्टि उन पदार्थों पर भी नहीं पड़ती जो सुन्दरतामें अपना सानी नहीं रखतीं । इस जगतसे बढ़कर, सूर्य चन्द्रमा और तारागणसे बढ़कर, क्या कोई चीज़ सुन्दर, मनोहर और विशाल हो सकती है ? कदापि नहीं । फिर बतलाइए कितने मनुष्योंकी दृष्टि इनपर पड़ती है और कितने इनपर विचार करते हैं । ( एडीसन ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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