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वचन-शुभ
जैन तत्त्व दर्शन में बात्मा और परमात्मा में इतनी भिन्नता नहीं है कि भजन-स्तवन, पूजा-उपासना का अवकाश हो। पर मनवादका शासन जीवन पर नहीं चलता। भक्ति-उपासना हर मानव की अंतनिहित आवश्यकता है। परमात्मा उस अर्थ में न सही, जैनों के पास उपास्य रूप में परम्परागत पंचपरमेष्ठी की धारणा रहती आई है।
जिन जीतने वाले को कहते हैं और जिन अनुयायी कहलाते हैं जन । जय-विजय कोई बाहरी नही वरन् अपने भीतर के विकार-वासनाओं की। ऐसे विजेताओं की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। इनके गुणों को पूजने की पद्धति भी आज की नहीं है । पूजा विषयक हिन्दी में भी काफ़ी काव्य रचा गया है। इसी काव्य को आधार बनाकर श्री आदित्य प्रचण्डिया ने गवेषणात्मक प्रबन्ध की रचना की है जिस पर आगरा विश्वविद्यालय, द्वारा, इन्हें पी-एच० डी० उपाधि से विभूषित किया गया है।
प्रस्तुत प्रबन्ध में लेखक ने स्पष्ट किया है कि जैन पूजा का रूप-स्वरूप अन्य धर्मावलम्बियों की पूजा पद्धति से भिन्न है। पूजनीय गहां व्यक्ति नहीं, गुण हैं। सिद्ध, अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय और साधु-मुनि यह पंच परमेष्ठि प्रतीक हैं। संयम साधना और तपश्चरण से ये राग-द्वेष जन्य कर्म कषायों को जीतने और अन्त में सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि पंचपरमेष्ठि व्यक्ति नही, गुणधाम है । गुणों का स्मरण, उनकी वंदना करना वस्तुतः जैनपूजा है। अन्यथा वीतराग की पूजा करने में लाभ ही क्या है ? वे अपने पुजारी का भला-बुरा कुछ कर तो सकते नहीं। लेखक ने स्पष्ट किया है कि इन आत्मिक गुणों का स्मरण कर, उनकी वंदना कर पूजक अपनी आत्मा में निहित प्रच्छन्न गुणों को जगाता है, उजागर करता है । इस प्रकार आत्म-जागरण ही वस्तुत: जैन पूजा का प्रयोजन है।
हिन्दी पूजा-काव्य-रूप रस वैविध्य के अतिरिक्त अनेक छन्दों में, शैलियों में रचा गया है। इस काव्य-अभिव्यञ्जना में नाना प्रतीकों, अलंकारों तथा शब्द शक्तियों का प्रयोग-उपयोग हम है। लेखक ने इन तमाम काव्यशास्त्रीय