Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 82
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 52 उसके बाद गुरू बारह तिलक धारण करने वाले उस शिष्य के सामने उपनयन की व्याख्या करे। वह इस प्रकार से है - आठ वर्ष में ब्राह्मण का, दस वर्ष में क्षत्रिय का और बारह वर्ष में वैश्य का उपनयन हो जाना चाहिए। इसमें गर्भ के मास भी शामिल हैं। जिन-उपवीत शब्द का अर्थ इस प्रकार है :- जिन का उपवीत अर्थात् मुद्रासूत्र। प्राचीन काल में भी युगादिदेव भगवान् ऋषभदेव ने गृहस्थ-धर्म को धारण करने वाले तीनों वर्गों के लिए अपनी मुद्रा (जिनमुद्रा) का धारण आवश्यक न करके नवब्रह्मगुप्ति से युक्त इस रत्नत्रय का उपदेश दिया था। बाद में तीर्थ का व्यवच्छेद होने पर मिथ्यात्व को प्राप्त ब्राह्मणों ने चारों वेदों में हिंसा का प्ररूपण कर उन्हें मिथ्यापथ पर ले गए। पर्वत एवं वसुराजा के द्वारा हिंसायुक्त यज्ञमार्ग प्रवर्तन होने पर जिनोपवीत का नाम यज्ञोपवीत हो गया। चाहे वे मिथ्यादृष्टि वाले यथेष्ट प्रलाप करते रहे, किन्तु जिनमत में तो वह जिनोपवीत ही धारण करने योग्य है, इसे तुम्हें अच्छी तरह धारण कर लेना चाहिए। प्रतिमास नवीन जिनोपवीत धारण करे। प्रमादवश जिनोपवीत का त्याग हो जाने पर या टूट जाने पर तीन उपवास करके नया उपवीत धारण करे। प्रेतक्रिया में (मृत्यु-क्रिया में) दाएँ कंधे के ऊपर से बांई कांख के नीचे की तरफ, अर्थात् विपरीत रूप से धारण करें, क्योंकि वह कर्म (प्रेतक्रिया) ही विपरीत है। मुनि भी मृत मुनि के परित्याग के समय उसी प्रकार से विपरीत वस्त्र (उल्टे वस्त्र) धारण करते हैं। तुम जन्म से पहले शूद्र थे। इस समय विशेष संस्कार से ब्रह्मगुप्ति धारण करने के कारण ब्राह्मण, विनाश से प्रजा की रक्षा करने के कारण क्षत्रिय तथा न्यायपूर्वक धनार्जन के कारण वैश्य हुए हो। इसलिए क्रिया सहित इस जिनोपवीत को अच्छी तरह धारण करना, इसकी सुरक्षा करना। उपनयन की यह विधि तुम्हें अक्षयपद प्रदान करने वाली तथा सत्य धर्म से वासित करने वाली हो। इस प्रकार व्याख्या करके परमेष्ठी-मंत्र का उच्चारण करके दोनों खड़े हो जाएं। फिर चैत्यवंदन एवं साधुवन्दन करें। यह उपनीत पुरूष के व्रत-विसर्ग (विसर्जन) की विधि है। गोदान-विधि इस प्रकार है : व्रत-विसर्जन के बाद गुरू शिष्य सहित परमात्मा की तीन-तीन प्रदक्षिणा देकर, पूर्ववत् चारों दिशाओं में शक्रस्तव का पाठ करे। उसके बाद गृहस्थ गुरू आसन पर बैठ जाए। तब शिष्य गुरू की तीन प्रदक्षिणा करके, नमस्कार करके, हाथ जोड़कर तथा खड़े होकर गुरू से कहे -"हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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