Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 112
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 82 "सम्यक् चरित्र की आकांक्षा रखने वाले बालक, स्त्री, वृद्ध एवं अज्ञ मनुष्यों के उच्चारण के लिए तत्त्वज्ञों ने प्राकृत को आधार बनाया है।" दृष्टिवाद बारहवां अंग है, उसके 1. परिकर्म 2. सूत्र 3. पूर्वानुयोग 4. पूर्वगत 5. चूलिका - ये पाँच विभाग संस्कृत में हैं। इसे बाल, स्त्री एवं अज्ञजनों को नहीं पढ़ना चाहिए। इसे संसार पारगामी तत्वज्ञ, विद्वानों एवं गीतार्थों द्वारा ही पढ़ा जाना चाहिए। कालिक एवं उत्कालिक आगम ग्रन्थ बाल, साधु, साध्वी, व्रतियों एवं योग को धारण करने वालों द्वारा पढ़े जाने चाहिए, इसलिए अर्हत् भगवानों ने इनकी रचना प्राकृत भाषा में की है और इसलिए व्रतारोपण-संस्कार को उसे ग्रहण करने वाले बाल, स्त्री एवं सामान्य गृहस्थों के लिए एवं यतियों के हितार्थ प्राकृत भाषा में कहा गया हैं। "मृद्, ध्रुव एवं क्षिप्र संज्ञक नक्षत्र तथा मंगलवार एवं शनिवार को छोड़कर शेष वार तप की नंदी, आलोचनाप एवं प्रथम भिक्षाचर्या आदि हेतु शुभ कहे गए हैं। वर्ष, मास, दिन, नक्षत्र, लग्न शुद्ध होने पर विवाह, दीक्षा, प्रतिष्ठा के समान ही शुभ लग्न में गृहस्थ गुरू उसके घर में शान्तिक-पौष्टिक कर्म करे। पुनः देवालय में, उपाश्रय में, शुभ आश्रम में, या अन्यत्र, समवशरण की रचना कर उसमें परमात्मा की प्रतिमा स्थापित करे। फिर स्नान से पवित्र होकर अपने घर से महोत्सवपूर्वक उपाश्रय में आकर वह श्रावक श्वेत कटिवस्त्र और श्वेत उत्तरीय धारण करे तत्पश्चात् हाथ में मुहँपत्ति लेकर, कसे हुए जूड़े वाला वह श्रावक ललाट पर चंदन का तिलक करके तथा अपने वर्ण के अनुसार जिन उपवीत, उत्तरीयवस्त्र या उत्तरासंग को धारण करके पूर्वाभिमुख गुरू की बांई ओर बैठे। उसे इस प्रकार बैठाकर गुरू यह कहे - "सम्यक्त्व को प्राप्त करके जो उसे छोड़ देते हैं, वे नरक और तिर्यंच योनि का द्वार खोलते हैं एवं मनुष्य भव तथा मोक्ष सुख को कम करते हैं, अर्थात् उनसे दूर हो जाते हैं।" उसके बाद श्रावक गुरू की आज्ञा से नारियल, अक्षत और सुपारी को हाथ में रखकर परमेष्ठी-मंत्र का उच्चारण करते हुए समवशरण की तीन प्रदक्षिणा दे। फिर गुरू के पास आकर गुरू एवं श्रावक-दोनों ईर्यापथिकी की क्रिया करे, अर्थात् गमनागमन में लगने वाले दोषों की आलोचना करे। फिर आसन पर विराजित गुरू के सामने श्रावक इस प्रकार कहें-“हे क्षमाशील गुरू महाराज अपनी शक्ति के अनुरूप सर्व सांसारिक कार्यों का निषेध करके आपके आवृत्त (सीमाक्षेत्र) में आकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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