Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 110
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर वह आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणविनय और दोषपरिधात विनय से युक्त होता है ।" पुनः गुरू के छत्तीस गुण बताए गए हैं – “सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनके प्रत्येक के आठ-आठ भेद हैं तथा तप के बारह भेद हैं, इस प्रकार कुल मिलाकर आचार्य के छत्तीस गुण बताए गए हैं। अन्य अपेक्षा से निम्न छत्तीस गुण भी कहे गये हैं 1. संविग्न ( भवभीरू) 2. मध्यस्थ-तटस्थ 3. सज्जन 4. मृदु 5 ज्ञाता 6. पंडित 7. भली-भांति संतुष्ट 8. गीतार्थ 9. कृतयोगी 10. भावों को जानने वाला 11. लब्धि सम्पन्न 12. उपदेश देने वाला 13. आदेश देने वाला 15. विज्ञाता 16. विग्रह न करने वाला 17. नैमत्तिक 19. उपकारी 20. दृढ़धारणा वाला 21. दूरदर्शी 22. नयनिपुण 23. प्रिय बोलने वाला 24. गंभीर स्वरवाला 25. तप में निरत 26. सुन्दर शरीर वाला 27. श्रेष्ठ प्रतिभा से सम्पन्न 28. त्यागी 29. आनंद प्रदाता 30. पवित्र (वाग्मी) 31. गंभीर 32. अनुवर्ती 33. शरणागत-वत्सल 34. स्थिर चित्तवाला 35. धीर और 36. उचित - अनुचित का ज्ञाता (विवेकशील ) आचार्य के ये छत्तीस गुण कहे गए हैं । " 14. मतिमान् 18. बलवान पितृ - परम्परा से माने गए इस प्रकार के गुरू को, या उसके अभाव में इन गुणों से युक्त अन्य गुरू के प्राप्त होने पर ही गृहस्थ को व्रतारोपण की विधि करनी चाहिए । जो गृहस्थ पूर्व कथित इन चौदह संस्कारों से सुसंस्कृत हैं, वही गृहस्थ-धर्म के योग्य हैं । आगम में कहा गया है कि, धर्म - रत्न के योग्य श्रावक 1 अशूद्र 2. रूपवान् 3 प्रकृति - सौम्य 4. लोकप्रिय 5. अक्रूर 6. पापभीरू 7. अशठ 8. दाक्षिण्यवान् 9. लज्जालु 10. दयालु 11. मध्यस्थ 12. सौम्यदृष्टि 13. गुणानुरागी 14. सत्कथी और सुपक्षयुक्त 15. सुदीर्घदर्शी 16. विशेषज्ञ 17. वृद्धानुयायी 18. विनीत 19. कृतज्ञ 20. परहितार्थकारी (परोपकारी ) 21. लब्ध-लक्ष्य इन इक्कीस गुणों से युक्त होता है। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने श्रावक के निम्न 35 मार्गानुसारी गुण बताए हैं : "न्याय से पैसा प्राप्त करना । उत्तम आचार वाले की प्रशंसा करना ! भिन्न गोत्र वाले तथा जिनके कुल एवं आचार समान है; उनके साथ विवाह करना । पाप से भय रखना । देशप्रसिद्ध आचार के अनुसार आचरण करना। किसी का अवर्णवाद नहीं बोलना और उसमें भी राजा के अवर्णवाद का विशेष रूप से त्याग करना । जो न अधिक खुला हुआ हो और न ही अधिक बंद (अंधेरे से युक्त ) हो, ऐसे घर में अच्छे पड़ोसियों के For Private & Personal Use Only - Jain Education International — — -- 80 www.jainelibrary.org

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