Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 135
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर 105 इसके बाद शक्रस्तव के सम्पूर्ण उपधान की तप - विधि इस प्रकार है सर्वप्रथम एक अट्ठम, अर्थात् निरन्तर तीन उपवास करें, फिर बत्तीस - आयम्बिल करें। तत्पश्चात् अरिहंत चैत्यस्तव की उपधान - विधि इस प्रकार से है पहले एक उपवास करें, फिर तीन आयम्बिल करें । पहले तीन पहले एक उपवास करें, चतुर्विंशतिस्तव की उपधान - विधि इस प्रकार है उपवास करें और फिर पच्चीस आयम्बिल करें। श्रुतस्तव की उपधान विधि इस प्रकार है फिर पाँच आयम्बिल करें। — तीर्थंकर गणधरों ने चैत्यवंदनादि सूत्र में उपधान की यह विधि बताई है सम्यक् रूप से उपधान का वहन करते समय व्यापार का निषेध किया गया है, साथ ही विकथा का विवर्जन करते हुए रौद्र ध्यान से रहित होने का निर्देश दिया गया है। उपधान काल में दिन में विश्राम नहीं करें। बालक, वृद्ध या शक्तिरहित तरूण व्यक्ति अपनी आत्मशक्ति के आधार पर उपधान के परिमाण की पूर्ति करें। उपधान में रात्रिभोजन का त्याग होता है । उपधान में रात्रिभोजन विरतिरूप द्विविधाहार, त्रिविधाहार, चतुर्विधाहार का विधिपूर्वक नवकारसी सहित आदि प्रत्याख्यान करें । एक शुद्ध आयम्बिल का, अथवा इतर दो आयम्बिल का एक उपवास, पैंतालीस नवकारसी का एक उपवास, चौबीस पोरसी का एक उपवास, दस डेढ़ पोरसी (साढपोरसी) का एक उपवास, तीन नीवी का एक उपवास, चार एकलठाणे का एक उपवास, इसी प्रकार सोलह पुरिमड्ढ का एक उपवास, चार एकासने का एक उपवास, चार एकासने का एक उपवास व आठ बियासणे का भी एक उपवास माना जाता है । “हे भगवन् ! यदि उपधान सहित ही नमस्कार - मंत्र का ग्रहण हो, तो उपधान करते हुए ही प्रभूतकाल व्यतीत हो जाएगा और इस प्रकार से उस व्यक्ति का नवकार से रहित ही मरण होगा और नवकार से रहित मरण होने पर वह निर्वाण को कैसे प्राप्त करेगा ?" इसलिए यह भी कहा गया है कि पहले नमस्कार - मंत्र ग्रहण कर लें बाद में उपधान हो या न हो । किन्तु, हे गौतम ! जिस समय जो प्राणी व्रतोपचार करता है, उसी समय वह भगवान की आज्ञा को शब्दशः ग्रहण कर लेता है और ऐसा जो कृत उपधानवाला है वह भवांतर में सुलभ बोधि www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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