Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 161
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर – 131 पत्थर, पृथ्वी-समूह, रेती, मणि स्वर्णादि महाधातु रूप शरीर को, प्राणवध के स्थान पर, प्राणी संचलन के स्थान पर, प्राणी को पीड़ा हो ऐसे स्थान पर, पापवर्धक तथा मिथ्यात्व का पोषण होता हो, ऐसे स्थानों पर संलग्न किया हो, तो उस दुष्कृत की मैं निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति अपने ममत्व का त्याग करता हूँ। जो मैंने पृथ्वीकाय के - शिला, पत्थर आदि पृथ्वीकाय समूह को, रेती, मणि आदि को सोनादि महाधातुरूप शरीर को अरिहंत बिम्बों में, धर्मस्थानों पर, जंतुओं के रक्षा के स्थानों पर, धर्म के उपकरणों में उपयोग किया हो, तो उस सुकृत की मैं अनुमोदना करता हूँ, बहुमान करता हूँ।" ___ पुनः परमेष्ठीमंत्र पढ़कर कहे -"जो मैंने अपकाय के जीवों यथा - जल, ओले का पानी, धुअर का पानी, ओस का पानी, बर्फ का पानी, वनस्पति पर स्थित बूंद के पानी रूप शरीर को, प्राणियों के वध के स्थान पर, प्राणियों के संचलन के स्थान पर, प्राणियों को पीड़ा हो, ऐसे स्थान पर पाप का वर्धक एवं मिथ्यात्व का पोषण होता हो, ऐसे स्थानों पर संलग्न किया हो, तो उसके लिए मैं निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्व का त्याग करता हूँ। जो मैंने अप्काय के जीवों यथा - जल, ओले का पानी, धुअर का पानी, ओस का पानी, बर्फ का पानी, वनस्पति पर स्थित बूंद के पानी रूप शरीर को अरिहंत चैत्यों में, अरिहंत बिम्बों में, धर्मस्थानों में, जंतुओं के रक्षा के स्थानों पर, धर्म के उपकरणों में परमात्मा का अभिषेक करने में, तृषादाह का शमन करने में संयुत किया हो तो उस सुकृत की मैं अनुमोदना करता हूँ, बहुमान करता हूँ।" पुन: परमेष्ठीमंत्र बोलकर कहे -"जो मैंने तेजस्काय यथा -- अग्नि, अंगारों की अग्नि, भोभर की अग्नि, ज्वालाओं की अग्नि, जलती हुई लकड़ी की अग्नि, विद्युत आदि की अग्नि, उल्कापात की अग्नि आदि के तेजसरूप शरीर को, प्राणी-वध के स्थान पर, प्राणी-संचलन के स्थान पर, प्राणियों को पीड़ा हो, ऐसे स्थान पर, जहाँ पापवर्धक एवं मिथ्यात्व का पोषण होता हो, ऐसे स्थानों में योजित किया हो, तो उसके लिए मैं निंदा करता हूँ, गर्दी करता हूँ, उसके प्रति ममत्व का त्याग करता हूँ। जो मैंने तेजस्काय - अग्नि, अंगारो की अग्नि, भोभर की अग्नि, ज्वालाओं की अग्नि, जलती हुई लकड़ी की अग्नि, विद्युत की अग्नि, उल्कापात की अग्नि, तेजस्प शरीर को शीतोपचार करने में, परमात्मा की धूप-पूजा करने में, नैवेद्य बनाने में, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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