Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 166
________________ षोडश संस्कार 136 आचार दिनकर नानाविध वस्त्र, सोना, मणि तथा विचित्र वस्त्र का बना हुआ भवन स्थापित करें । फिर स्वजाति के चार जनों सहित शव को कंधे पर लेकर श्मशान में ले जाएं। वहाँ उत्तरभाग में शव का सिर रखकर तथा चिता में स्थापित करके पुत्रादि अग्नि से संस्कार करें। अन्न का भोजन न करने वाले बालकों का भूमि- संस्कार करना चाहिए और अन्न का भोजन करने वाले सभी गृहस्थों का अग्नि-संस्कार करना चाहिए। वहाँ प्रेत सम्बन्धी दान को ग्रहण करने वाले को दान दें। फिर सभी स्नान करें और उसी मार्ग से अपने घर आ जाएं। तीसरे दिन पुत्र आदि चिता की भस्म को नदी में प्रवाहित करें एवं उसकी अस्थियों को तीर्थो में स्थापित करें। फिर उसके अगले दिन स्नान करके शोक का निवारण करें। परिजनों सहित मन्दिर में जाकर जिनबिंब को स्पर्श किए बिना चैत्यवंदन करें। फिर उपाश्रय में आकर गुरू को नमस्कार करें। गुरू भी संसार की अनित्यता के स्वरूप का दिग्दर्शन कराए। फिर सभी पूर्वानुसार अपने-अपने सांसारिक कार्य करते हैं । अन्तिम आराधना से लेकर शोक निवारण तक की आवश्यक क्रियाओं में मुहूर्त आदि देखने की आवश्यकता नहीं होती है। मृतक के स्नान कराने में निम्न नक्षत्र वर्जित हैं ---- “यमल एवं त्रिपुष्कर योग में, आर्द्रा, मूला, अनुराधा, मिश्र, क्रूर और ध्रुव संज्ञक नक्षत्रों में प्रेत-क्रिया नहीं करनी चाहिए । धनिष्ठा से लेकर पाँच नक्षत्रों में तृण - काष्ठ आदि का संग्रह नहीं करना चाहिए । शय्या, दक्षिण दिशा की यात्रा, मृतक कार्य, गृहोद्यम आदि न करें। रेवती, आश्लेषा, पुष्य, हस्त, स्वाति, मृगशिर इन नक्षत्रों में तथा बुध, बृहस्पति और शनिवार में प्रेतकर्म सम्बन्धी कार्यों को करने के लिए पण्डितों द्वारा निर्देश दिया गया हैं । अपने-अपने वर्ण के अनुसार जन्म एवं मरण का सूतक एक जैसा होता है। गर्भपात में भी तीन दिन का सूतक होता है । अन्य वंश वाले की अपने घर में मृत्यु होने पर या जन्म होने पर तथा विवाहित पुत्री के यहाँ का सूतक का अन्न के खाने से, इन सब में भी तीन दिन का सूतक लगता है। अन्न नहीं खाने वाले बालक का सूतक भी तीन दिन का होता है । आठ वर्ष से कम आयु वाले के सूतक का एक-तिहाई भाग कम होता है । सूतक के अन्त में अपने-अपने वर्ण के अनुसार कल्याणरूप परमात्मा की स्नात्र पूजा और साधर्मिक वात्सल्य करें । इस प्रकार वर्धमानसूरि प्रतिपादित आचारदिनकर में गृहिधर्म में अन्त्य - संस्कार की यह विधि बताई है। Jain Education International -00 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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