Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 164
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर – 134 उपस्थित हुआ हूँ। क्योंकि छद्मस्थ (घातिकर्म सहित) मूढ़ मन वाला यह जीव किंचित मात्र का स्मरण कर सकता है, सब नहीं, अतः जो मुझे स्मरण है, उनकी तथा जो स्मरण नहीं हो रहे हैं, उन सब दुष्कृत्यों की मैं आलोचना करता हूँ। मैंने मन से जो-जो अशुभ चिंतन किया हो, वचन से जो-जो अशुभ बोला हो तथा काया से जो-जो अशुभ व्यापार किया हो, तो उसकी आलोचना करता हूँ" - यह ग्लान का पाठ है। फिर वह नमस्कारमंत्र के पठनपूर्वक कहे : "चार मंगल हैं - अरिहंत मंगल है, सिद्ध मंगल है, साधु मंगल है और केवली प्ररूपित धर्म मंगल है। लोक में चार उत्तम हैं - अरिहंत लोकोत्तम है, सिद्ध लोकोत्तम है, साधु लोकोत्तम है और केवली प्ररूपित धर्म लोकोत्तम है। ___ मैं चार शरण स्वीकार करता हूँ - अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूँ, सिद्ध की शरण स्वीकार करता है, साधु की शरण स्वीकार करता हूँ और केबली प्ररूपित धर्म की शरण अंगीकार करता हूँ।" फिर गुरू के कथनानुसार निम्न अठारह पापस्थानकों का त्याग करे। “मैं प्राणातिपात (जीवहिंसा) का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं मिथ्या कथन, अर्थात् मृषावाद का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं अदत्तादान (चोरी) का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं मैथुन (विषयभोग) का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं परिग्रह का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैंरात्रि भोजन का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं क्रोध का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं मान का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं माया का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं लोभ का सर्वथा त्याग करता हूँ। मैं राग-द्वेष का सर्वथा त्याग करता हूँ। इसी प्रकार सर्व पापस्थान यथा - कलह, अभ्याख्यान, अरति-रति, पैशुन्य (चुगली करना), परपरिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यादर्शनशल्य इत्यादि अठारह पापस्थानों का अभी दो योग और तीन करण से मैं त्याग करता हूँ तथा अपने जीवन की अन्तिम श्वास में इन सबका तीन योग एवं तीन करण से त्याग करता फिर गीतार्थ गुरू योगशास्त्र के पंचम प्रकाश का और कालप्रदीप का वाचन करे, अथवा समाधिमरण से सम्बन्धित अन्य सत्शास्त्रों का. वाचन करे। फिर ग्लान की आयु क्षीण होती जानकर संघ की, उसके सम्बन्धियों की एवं राजा की अनुमति लेकर यावज्जीवन अनशन का उच्चारण कराए। ग्लान शक्रस्तव और तीन बार परमेष्ठीमंत्र पढ़कर गुरूमुख से निम्न प्रतिज्ञा का उच्चारण करे - "भवचरिमं पच्चक्खामि तिविहंपि आहारं, असणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहस्सागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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