Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 118
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर इस प्रकार मिथ्यात्व से निवृत्त होकर एवं सम्यक्त्व को प्राप्त करके गुरू के समक्ष कहें "निःसंग अरिहंत ही मेरे देव हैं, सुसाधु गुरू हैं और दाक्षिण्य, अर्थात् अहिंसा ही धर्म है । " गुरू तीन बार यह गाथा पढ़कर श्रावक के मस्तक पर वासक्षेप डाले। फिर गुरू आसन पर बैठकर सूरिमंत्र, या गणिविद्या के द्वारा गन्ध, अक्षत एवं वासक्षेप को अभिमंत्रित करे। उस गन्ध, अक्षत एवं वासक्षेप को हाथ में लेकर परमात्मा की प्रतिमा के पैरों का स्पर्श करे और फिर उसे साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका को दे है। वें उसे अपनी मुट्ठी में, अर्थात् हाथ में रखें। उसके बाद श्रावक आसन पर विराजित गुरू के आगे खमासमणा देकर कहे - "हे भगवन् ! आप मुझे सम्यक्त्व आदि सामायिक का आरोपण कराएं।" तब गुरू कहे "मैं आरोपण करता हूँ ।" पुनः श्रावक खमासमणा देकर कहे "मैं क्या बोलूं (पढूं) मुझे आज्ञा दीजिए ?" गुरू कहे "वंदन करके प्रवेदित करो।" पुनः श्रावक खमासमणा देकर कहे - "हे भगवन् ! आपने मुझमें तीनों सामायिक का आरोपण कर दिया है ?" गुरू कहे "आरोपण कर दिया है, गुरू परम्परा से प्राप्त सूत्र, अर्थ तथा सूत्र व अर्थ दोनों से गुरू के गुणों का वर्धन करते हुए संसार - सागर को पार करने वाले बनों । - Jain Education International -dr पुनः श्रावक "मैं गुरू- आज्ञा चाहता हूँ।" यह कहकर पुनः खमासमणा - सूत्र से वंदन करके कहे - "आपके द्वारा जो प्रतिपादित किया गया है, उसे मैं (अन्य ) साधुओं को बताऊँ ? आज्ञा दीजिए।" गुरू कहे "बताओ।" फिर श्रावक परमेष्ठीमंत्र पढ़कर समवसरण की प्रदक्षिणा करे । उस समय संघ पूर्व में दिया गया वासक्षेप उसके मस्तक पर डाले । गुरू के आसन पर बैठने से लेकर संघ द्वारा वासक्षेप डालने तक की यह क्रिया को इसी विधि से तीन बार करें। पुनः श्रावक खमासमणा देकर कहे "मैंने आपको निवेदित कर दिया हैं ।" पुनः श्रावक खमासमणा देकर कहे - " मैंने साधुओं को भी निवेदित कर दिया है। अब कायोत्सर्ग करने की आज्ञा चाहता हूँ ।" गुरू कहे - "करो।" फिर श्रावक "मैं सम्यक्त्व त्रय के स्थिरीकरण के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ ।"- यह कहकर वंदणवत्तियाए एवं अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में सत्ताईस श्वासोश्वास प्रमाण चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे । कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव का पाठ करे। फिर चौथी स्तुति को छोड़कर शक्रस्तव द्वारा चैत्यवंदन करे। इसके बाद श्रावक गुरु की तीन प्रदक्षिणा For Private & Personal Use Only 88 - www.jainelibrary.org

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