Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 125
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 95 व्यापार का तथा अपक्व आहार, अज्ञात फल-फूल आदि का भी वर्जन करता हूँ। ___ पांच उदुंबर, चार विकृति, बर्फ, विष, ओला, सर्वप्रकार की मिट्टी और रात्रि भोजन का त्याग करता हूँ। इसी प्रकार बहुबीज, अनंतकाय, अचार, घोलवड़ा (द्विदल), बैंगन, अज्ञात फल-फूल, तुच्छफल, चलितरस आदि त्यागने योग्य बाईस अभक्ष्य का त्याग करता हूँ। इसी प्रकार अज्ञात फल-फूल एवं पत्तों का भी त्याग करता हूँ| इस प्रकार के पदार्थो का न मैं भक्षण करूंगा और न पान करूंगा। मर्यादित फलों में भी मैं अपक्व (कच्चे) एवं अखंडित फल का भक्षण नहीं करूंगा। आजन्म संचित वस्तुओं का भी इतनी मात्रा में ही भक्षण करूंगा। तले हुए व्यंजन, घी, दूध, दही आदि विकृति (विगई) का तथा सचित्त फल आदि के साथ ही इतने हाथी, घोड़े, रथ का मैं यतनापूर्वक उपयोग करूंगा। सुपारी, लौंग एवं (तेज) पत्ता, इलायची और जायफल की इतनी मात्रा का ही उपयोग करूंगा, उससे अधिक मात्रा का नहीं। चार प्रकार के वस्त्रों में भी इतने वस्त्र पहनने मेरे लिए कल्प्य हैं। अमुक जाति के तथा इतनी संख्या में निश्चित पुष्पों का मैं शरीर हेतु उपयोग करूंगा। मैं मात्र इतने आसन, सिंहासन, पीढ़े, आसन, चौकी, पलंग, खाट, गद्दे आदि का उपयोग करूंगा। कपूर, अगरू, कस्तूरी, श्रीखण्ड, कुंकुम अंगलेप आदि का उपयोग करूंगा। पूजन-कार्य में भी इस सम्बन्ध में सावधानी रखूगा। नारियों के सम्भोग की भी मर्यादा करता हूँ। पानी के इतने घड़े की पीने के लिए तथा इतने घड़ों की इतनी बार स्नान करने के लिए मर्यादा करता हूँ। इतने प्रकार के तेलों का इतनी मात्रा में उपयोग करूंगा। इसी प्रकार इतनी मात्रा में दिन में इतनी बार भोजन की मर्यादा करूंगा। इसी प्रकार जीवनपर्यंत यथानिश्चित सचित्त वस्तुओं आदि का भोग-उपभोग करूंगा। उनकी संख्या का निश्चय मैं प्रतिदिन करूंगा। मणि, सोना, चांदी, मुक्ता (मोती) आदि के इतने आभूषणों को शरीर पर धारण करूंगा। एक निश्चित मर्यादा के अतिरिक्त गीत, नृत्य (नाट्य) और वाद्य के उपभोग का मैं त्याग करता हूँ। मैं आर्त्त-रौद्र ध्यान का तथा शत्रु के घात, हिंसा आदि का भी मैं त्याग करता हूँ। उदारतावश सावद्यकारी उपदेश देने या किसी की प्रशंसा-निंदा करने का त्याग करता हूँ। मैं पशु पक्षी के युद्ध करवाने का, पूरी रात एवं अकाल में निद्रा लेने का आदि सभी प्रकार के अनर्थदण्ड और उसमें होने वाले दोषों का त्याग करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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