Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 132
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 102 एकभक्त, आठवें दिन उपवास, नवें दिन एकभक्त, दसवें दिन उपवास, ग्यारहवें दिन एकभक्त और बारहवें दिन उपवास करें। प्रथम उपधान में यह बारह दिन का तप है। यहाँ पंचपरमेष्ठी पदों की वाचना नंदी के बिना भी दें। शक्रस्तव के उच्चारण एवं वासक्षेपपूर्वक सभी वाचनाओं में तीन बार नमस्कार-मंत्र का पाठ करें। तदनंतर लगातार आठ आयम्बिल करें -- इस प्रकार उन्नीस दिन' हुए। फिर बीसवें दिन एकभक्त, इक्कीसवें दिन उपवास, बाइसवें दिन एकभक्त, तेईसवें दिन उपवास, चौबीसवें दिन एकभक्त, पच्चीसवें दिन उपवास - इस प्रकार उत्तर उपधान में यह आठ तप करें। फिर चूलिका वाचना - "एसो पंच नमुक्कारों, सव्वपावप्पणासणोमंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं", तक करें। यह नमस्कार मंत्र की उपधान-विधि है। इसकी वाचना की विधि यह है - पहले समाचारी पुस्तक का पूजन करे, फिर पश्चिमाभिमुख हो मुखवस्त्रिका से मुख को आच्छादित करके ईर्यापथिकी के दोषों का प्रतिक्रमण करके खमासमणा सूत्रपूर्वक वंदन करके कहे - ___"हे भगवन् ! नमस्कार मंत्र की वाचना आप द्वारा देने एवं मेरे द्वारा उसे ग्रहण के लिए वासक्षेप करें, या चैत्यवंदन कराएं। इस प्रकार छब्बीसवें दिन एकभक्त होने पर नंदीक्रियापूर्वक वाचना दें। चतुर्थ चूलिका-पद के सभी उपधानों में प्रतिदिन व्यापार से निवृत्ति लेकर पौषध करें। प्रातः काल पौषध पूर्ण कर, नित्य पुनः पौषधव्रत ग्रहण करें, एवं एक हजार मंत्र का स्मरण करें - यह प्रथम नमस्कार-सूत्र की उपधान की विधि है। ईर्यापथिक-सूत्र के उपधान की विधि भी ऐसी ही है - दो नंदी के अतिरिक्त आदि से लेकर अन्त तक की सभी क्रियाएँ पूर्व में कहे अनुसार करें। इसके आठ अध्ययनों की दो वाचनाएँ एवं एक चूलिका की वाचना - इस प्रकार इसकी तीन भागों में वाचना देते हैं – पाँच पदो की एक चूलिका है, यथा -"इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहिआए विराहणाए गमणागमणे पाणक्कमणे बीअक्कमणे हरियक्कमणे ओसाउत्तिंगपणगदगमट्टीमक्कडासंताणासक्कमणे जे मे जीवा विराहिआ" - यह प्रथम वाचना है, इसे बारह दिनों के तप के पश्चात् देते हैं। "एगिंदिआ, बेइदआ तेइदआ चउरिदिआ पचिंदिया अभिहया वत्तिया लेसिआ, संघाइया संघट्टिआ परिआविआ किलामिआ उद्देविआ ठाणाओ ठाणं संकामिआ जीविआओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172