Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 123
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 93 चतुर्विध अनर्थदण्ड का यथा शक्ति परिहार करता हूँ। जीवन पर्यन्त दो करण एवं तीन योग, अर्थात् मन, वचन एवं काया - इन तीनों योगों से पाप व्यापार को न स्वयं करूंगा, न अन्य से कराऊंगा"-शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले। "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष सामायिक व्रत को यथाशक्ति ग्रहण करता हूँ। जीवन पर्यन्त दो करण एवं तीन योग, अर्थात् मन, वचन एवं काया - इन तीनों योगों से पाप व्यापार को न करूंगा, न कराऊंगा"- शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले। ___ "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष पौषध-उपवास व्रत को यथाशक्ति ग्रहण करता हूँ। जीवन पर्यन्त दो करण एवं तीन योग, अर्थात् मन, वचन एवं काया - इन तीनों योगों से पाप-व्यापार को न करूंगा, न कराऊंगा।"- शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले। "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष देशावगासिकव्रत को यथाशक्ति ग्रहण करता हूँ। जीवन पर्यन्त दो करण एवं तीन योग, अर्थात् मन, वचन एवं काया - इन तीनों योगों से पाप-व्यापार को न करूंगा, न कराऊंगा।"- शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले। "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष अतिथिसंविभागवत को यथाशक्ति ग्रहण करता हूँ। जीवन पर्यन्त दो करण एवं तीन योग अर्थात् मन, वचन एवं काया - इन तीनों योगों से पाप-व्यापार को न करूंगा, न कराऊंगा।"- शेष पूर्ववत्, इस प्रकार तीन बार बोले। सम्यक्त्व आधारित पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - इस प्रकार द्वादशविध श्रावकधर्म को स्वीकार करके जीवन निर्वाह करूंगा। यह दण्डक उच्चारण करने के पश्चात् कायोत्सर्ग वन्दन, खमासमणा, प्रदक्षिणा देना, वासक्षेप आदि सब क्रियाएँ पूर्ववत् करे। परिग्रहपरिमाणटिप्पणक की विधि इस प्रकार है - "अमुक जिनेश्वर को प्रमाण करके मैं अमुक श्राविका या अमुक श्रावक अमुक गुरू के पास गृहस्थ-धर्म को ग्रहण करता हूँ। अरिहंत को छोड़कर मैं किसी अन्य देव को प्रणाम नहीं करूंगा। निर्ग्रन्थ साधु को छोड़कर मैं किसी अन्य को प्रणाम नहीं करूंगा। जिनवचनों से भावित तत्त्वादि को सत्य (वास्तविक) जानूँगा। मिथ्याशास्त्र के श्रवण, पठन एवं लिखने का मैं त्याग करता हूँ, अर्थात् यह नहीं करूंगा। परतैर्थिकों के प्रति, प्रणाम, उनकी प्रभावना, स्तुति, भक्ति और उनके प्रति प्रीति सत्कार, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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