Book Title: Jain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Author(s): Vardhmansuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 89 करे। फिर आसन पर विराजित गुरू श्रावक को सामने बैठाकर नियम-ग्रहण करे। नियम-ग्रहण की विधि इस प्रकार है - "पांच उदुंबर, चार महाविकृति, अज्ञातफल, कुसुम, चलितरस वाले पदार्थ, बर्फ, विष, ओले, मिट्टी, रात्रिभोजन, दहीबड़े, बहुबीजवालेफल, अचार, पानीफल (तुच्छफल), बैंगन और अनंतकाय - इस प्रकार के बाईस द्रव्य श्रावक को नहीं खाने चाहिए. अर्थात् खाने के योग्य नहीं हैं। यह नियम देकर गुरू पुनः श्रावक द्वारा उच्चारण करवाए कि - "मैं जीवित रहूँ, वहाँ तक अरिहंत मेरे देव हैं, सुसाधु मेरे गुरू हैं और जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित सिद्धांत मेरा धर्म है, ऐसा सम्यक्त्व मैंने ग्रहण किया है। इसके बाद अरिहंत को छोड़कर अन्य देवों को और जैन यति (साधु) को छोड़कर अन्य यतियों, या विप्र आदि को भावपूर्वक वंदन नहीं करूंगा। जिनेश्वर द्वारा प्रतिपादित सात तत्त्वों को छोड़कर अन्य तत्त्वों पर श्रद्धा नहीं करूंगा। इस नियम का पालन करता रहूँगा। अन्य देव और अन्यलिंगी (संन्यासी) विप्र आदि को नमस्कार एवं दान लोक-व्यवहार हेतु ही करूंगा एवं अन्य शास्त्र का श्रवण एवं पठन भी उसी प्रकार, अर्थात् लोक व्यवहार हेतु करूंगा।" फिर गुरू सम्यक्त्व का उपदेश देते हैं। वह इस प्रकार है "मनुष्यत्व, आर्यदेश, आर्यजाति, सर्व इन्द्रियों की परिपूर्णता और दीर्घ आयु- ये सब कर्मों की लघुता से कठिनाई से ही प्राप्त होते हैं। यदि पुण्य से श्रद्धापूर्वक कहने वाले एवं श्रवण करने वाले प्राप्त भी हो जाएं, तो भी तत्त्व के निश्चयरूपी बोधिरत्न की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। कुसिद्धांतरूप श्रुति का पराभव करने वाला सम्यक्त्व जिसके हृदय में सुस्थित है, उसे ही संसार को प्रकाशित करने वाला ज्ञान और चारित्र प्राप्त होता है। अर्हन्त देव में देव-बुद्धि, निर्ग्रन्थ गुरू में गुरू की बुद्धि एवं जिनभाषित शुद्ध धर्म में धर्म बुद्धि का होना ही सम्यक्त्व कहलाता है। कुदेव में देव-बुद्धि, कुगुरू में गुरू-बुद्धि एवं कुधर्म (अधर्म) में धर्म की बुद्धि रखना, सत्य से विपरीत होने के कारण मिथ्यात्व कहलाता है। रागादि दोषों को जीतने वाले, तीनों लोक में पूजित और यथार्थ वक्ता - ऐसे सर्वज्ञ अहंत परमात्मा देव कहलाते हैं। यदि तुम्हारे पास सद् एवं असद का विवेक करने की बुद्धि या चेतना हो, तो ऐसे अर्हन्त परमात्मा का ध्यान करो, उनकी उपासना करो, उनकी शरण ग्रहण करो और उनकी ही आज्ञा अंगीकार करो। जो देव स्त्री, शस्त्र और जपमालादि राग के चिन्हों से दूषित हैं और दूसरों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172