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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 58 अश्रद्धालुरसि, आस्तिकोऽसि, नास्तिकोऽसि, आर्हतोऽसि, सौगतोऽसि, नैयायिकोऽसि, वैशेषिकोऽसि, सांख्योऽसि, चार्वाकोऽसि, सलिंगोऽसि, अलिंगोऽसि, तत्त्वज्ञोऽसि, अतत्त्वज्ञोऽसि, तद्भव ब्राह्मणोऽमुनोपवीतेन भवन्तु ते सर्वार्थसिद्धयः ।"
इस मंत्र का नौ बार पाठ करके उपवीत को स्थापित करे, अर्थात् धारण कराए। फिर उसके हाथ में पलाश का दण्ड दे, मृग की छाल पहनाए तथा भिक्षाटन कराए। फिर भिक्षा मांगने के पश्चात् उपवीत को छोड़कर मेखला, लंगोटी, जिनदण्ड आदि उतार दे, इन्हें उतारने का मंत्र यह है :
"ऊँ धुव्रोऽसि, स्थिरोऽसि, तदेकमुपवीतं धारयम्।।"
यह मंत्र तीन बार पढ़े। उसके बाद गुरू श्वेत वस्त्र के उत्तरासन को धारण किए हुए उस ब्राह्मण को सामने बैठाकर इस प्रकार शिक्षा दे - "परनिंदा, परद्रोह, परस्त्री एवं परधन की इच्छा, मांसाहार और तुच्छ कंद-भक्षण का त्याग करना। वाणिज्य में स्वामी की सेवा करते हुए कभी कपट न करना। ब्राह्मण (वेद) भ्रूण, स्त्री तथा गाय की रक्षा करना और देव, ऋषि एवं गुरू की सेवा करना, अतिथियों का सत्कार करना एवं यथाशक्ति दान देना। अघाती (वध न करने योग्य) का घात मत करना एवं व्यर्थ किसी को परेशान मत करना। आजीवन इस उपवीत को तुम विधिवत् धारण करना। शेष शिक्षा विधि पूर्व में कही गई चारों वर्ण की शिक्षा-विधि के समान है।
उसके बाद वह बटूकृत, गृहस्थ गुरू को स्वर्ण, वस्त्र, गाय, अन्न आदि का दान करे। यहाँ बटूकरण-विधि में - चौकोर वेदिका, समवशरण, चैत्यवंदन, व्रत की अनुज्ञा, विसर्ग, गोदान, वासक्षेप आदि करने का विधान नहीं है। इस प्रकार यह बटूकरण-विधि बताई गई है।
व्रत-बन्धन की विधि में पौष्टिक कर्म के उपकरण, मौंजी, लंगोटी, वल्कल, उपवीत, स्वर्ण-मुद्रा, गाय, संघ का समागम, तीर्थ-जल, वस्त्र, चन्दन, कुशः घास, पंचगव्य, बलिकर्म, चौकोर वेदिका, चतुर्मुख प्रतिमा, पलाश का दण्ड आदि वस्तुओं की आवश्यकता बताई गई है।
इस प्रकार वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में गृहस्थ-धर्म के उपनयन-संस्कार नामक बारहवां उदय समाप्त होता है।
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