Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay Author(s): Mohanlal Mehta Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore View full book textPage 7
________________ (६) एवं धर्म के उत्थान के लिये चिंतन, मनन और निदिध्यासन की ज्ञानधारा बहती रहती थी । उन्होंने श्री साधुमार्गी जैन संघ में समाजोत्थान के लिये एक 'समाज योजना' प्रस्तुत 'की जो 'मूथा योजना' के नाम से प्रचलित हुई । इस मूथा योजना को मूर्त रूप देने के लिये श्री मूथाजी ने तो आर्थिक सहयोग दिया ही, ज्ञानप्रेमी अन्य श्रेष्ठव ने भी आर्थिक योगदान देकर इस समाजोपयोगी योजना को सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आशा है, यह मूथा योजना अवश्य समाजोपयोगी सिद्ध होगी । श्री मूथाजी के जीवनकाल में उनके नाम-निर्देश के साथ कोई शिक्षाप्रवृत्ति चालू नहीं की जा सकी क्योंकि वे ऐसी प्रवृत्ति को पसंद नहीं करते थे लेकिन उनके मरणोपरान्त श्री सुराणाजी ने उनकी स्मृति में मूथा ग्रन्थालय की स्थापना की । इस ग्रन्थालय में श्री जंबूकुमारजी (दत्तक पुत्र श्री छगनमलजी मूथा) ने अपने यहाँ जो जैन साहित्य विपुल प्रमाण में था वह इस ग्रन्थालय को समर्पित कर दिया। श्री सुराणाजी एवं श्री शर्माजी ने भारतीय साहित्य - वैदिक साहित्य, बौद्ध साहित्य एवं जैन साहित्य जो भिन्न-भिन्न भाषाओं एवं भिन्न-भिन्न विषयों में प्रकाशित था, खरीदकर मूथा- ग्रन्थालय को करीब ६५०० बहुमूल्य ग्रन्थों द्वारा समृद्ध बनाया । भारतके मूर्धन्य विद्वान्, पद्मभूषण श्री दलसुखभाई मालवणिया ने अपनी अमूल्य दुर्लभ साहित्य - संपत्ति, जो करीब ५००० की संख्या में अपनी निजी लायब्रेरी में संगृहीत थी, मूथा - ग्रन्थालय को समर्पित कर दी । स्व. श्री छगनमलजी मूथा वास्तव में एक आदर्श जैन थे । उनका जीवन आदर्श जैन के गुणों से ओतप्रोत था । कोई भी दुःखी भाई- बहन सहायतार्थ उनके पास आते तो उनको सक्रिय सहयोग तथा आर्थिक सहायता देना वे अपना नैतिक कर्तव्य समझते थे । कोई भी निराश या हताश होकर नहीं जाता था । प्रत्येक दुःखी भाई-बहन को सच्ची सलाह देना, मार्गदर्शन देकर उनके कष्टों का निवारण करना वे अपना प्राथमिक कर्तव्य समझते थे । वे धनाढ्य होने के साथ ही गुणाढ्य भी थे, तेजस्वी और अपराभूत अर्थात् किसी से डरनेवाले नहीं थे । अपनी दानवीरता, वत्सलता एवं कर्तव्यपरायणता के कारण वे अजातशत्रु और सर्वप्रिय समाजनेता थे । शांतिलाल वनमाली शेठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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