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बंगले पर ही ठहरे थे और दोनों ने जब श्री मूथाजी की दानवीरता के संबंध में परिचय पाया तब यही कहा कि ये तो राजस्थान के वर्तमानकालीन दानवीर भामाशाह हैं । उक्त दोनों महानुभावों ने जैन शिक्षा समिति की विघ्न-बाधाओं को दूर कर समिति के शिक्षा कार्यों को प्रगतिशील बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । .
इसी प्रकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष, भारत के महान् विज्ञानवेत्ता डॉ. दौलतसिंहजी कोठारी जब बेंगलोर पधारे थे तब वे मूथाजी के बंगले पर ही ठहरे थे और उनका हार्दिक अभिनंदन श्री मूथाजी ने जैन शिक्षा समिति के विशाल हॉल में किया था । डॉ. कोठारी ने समिति की जैन-विद्या और राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवाप्रवृत्ति देखकर संतोष प्रकट किया था और स्व. श्री सुराणाजी, श्री मूथाजी एवं श्री शर्माजी-इस त्रिपुटी की विद्या-साधना की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी।
निःस्वार्थ समाजसेवक, जैन संस्कृति एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवा की धुनके पक्के, चित्तौड़-निवासी, कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता पं. श्री जोधराजजी सुराणा एवं विद्वद्वरेण्य शिक्षाशास्त्री श्री देवदत्तजी शर्मा-इन विद्याप्रिय दो सेवकों ने मद्रास में शिक्षा प्रचार का कार्य सफलतापूर्वक संपन्न कर जब सर्वप्रथम बेंगलोर में जैन-विद्या और हिन्दी-सेवा का कार्य प्रारंभ करने का संकल्प किया तब इन दोनों के संकल्प की पूर्ति के सहायक बने उदारचेता, श्रेष्ठिवर्य, शिक्षाप्रेमी श्री छगनमलजी मूथा । श्री सुराणाजी एवं श्री शर्माजी-इन युगल बन्धुओं ने आज से ५१ वर्ष पूर्व एक छोटे से ज्ञानबीजका आरोपण किया जो आज विविध शिक्षा-शाखाओं वाले एक विद्या-वटवृक्ष के रूपमें अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलान्वित हुआ है और उसकी विशाल शीतल छायामें आज तक हजारों की संख्या में विद्यार्थियों ने विद्यार्जन किया है और अपने जीवन को यशस्वी, तेजस्वी तथा ओजस्वी बनाया है ।
बेंगलोर में आज भी हिन्दी शिक्षण संघ एवं जैन शिक्षा समिति के अन्तर्गत विभिन्न शिक्षण-संस्थाएँ चल रही हैं और राष्ट्रीय संस्थाओं के रूप में प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रही हैं, यह संतोष एवं गौरव का विषय है ।
श्री मूथाजी स्वयं शिक्षाशास्त्री नहीं थे लेकिन उनके हृदय में राष्ट्र, समाज
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