Book Title: Jain Dharm ka Pran
Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi
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पाया जाता है। चार्वाक केवल अजीव को पाच भूतरूप मानते थे और उपनिषद के ऋषि केवल जीव अर्थात आत्मा-पुरुष-ब्रह्म को मानते थे। इन दोनो मतो का समन्वय जीव एव अजीव ये दो तत्त्व मानकर जैनदर्शन मे हुआ है। ससार और सिद्धि अर्थात निर्वाण अथवा बन्धन और मोक्ष सभी घट सकते है, जब जीव और जीव से भिन्न कोई हो । इसीलिए जीव और अजीव दोनो के अस्तित्व की तार्किक सगति जैनो ने सिद्ध की और पुरुष एव प्रकृति का अस्तित्व मानकर प्राचीन साख्यों ने भी वैसी सगति साधी। इसके अतिरिक्त आत्मा को या पुरुष को केवल कूटस्थ मानने से भी बन्ध-मोक्ष जैसी विरोधी अवस्थाए जीव में नहीं घट सकती। इससे सब दर्शनो से अलग पडकर, बौद्धसम्मत चित्त की भाति, आत्मा को भी एक अपेक्षा से जैनो ने अनित्य माना और सबकी तरह नित्य मानने मे भी जैनो को कुछ आपत्ति तो है ही नहीं, क्योकि बन्ध और मोक्ष तथा पुनर्जन्म का चक्र एक ही आत्मा मे है । इस प्रकार आत्मा को जैन मत मे परिणामी-नित्य माना गया। साख्यों ने प्रकृति-जड़ तत्त्व को तो परिणामी-नित्य माना था और पुरुष को कूटस्थ, परन्तु जैनो ने जड और जीव दोनो को परिणामी-नित्य माना। इसमे भी उनकी अनेकान्त दृष्टि स्पष्ट होती है। ____जीव के चैतन्य का अनुभव मात्र देह मे ही होता है, अत. जैन मत के अनुसार जीव-आत्मा देह परिमाण है। नये-नये जन्म जीव धारण करता है, इसलिए उसके लिए गमनागमन अनिवार्य है। इसी कारण जीव को गमन में सहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय के नाम से और स्थिति मे सहायक द्रव्य अधर्मास्तिकाय के नाम से--इस प्रकार दो अजीव द्रव्यो का मानना अनिवार्य हो गया। इसी प्रकार यदि जीव का ससार हो तो बन्धन भी होना ही चाहिए। वह बन्धन पुद्गल अर्थात जड़ द्रव्य का है । अतएव पुद्गलास्तिकाय के रूप मे एक दूसरा भी अजीव द्रव्य माना गया। इन सबको अवकाश देने वाला द्रव्य आकाश है, उसे भी जड़रूप अजीव द्रव्यमानना आवश्यक था। इस प्रकार जैनदर्शन मे जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल-ये पाच अस्तिकाय माने गए है। परन्तु जीवादि द्रव्यों की विविध अवस्थाओं की कल्पना काल के बिना नही हो सकती।