Book Title: Jain Dharm ka Pran Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi View full book textPage 9
________________ :८: रूप में जन्म लेकर पूर्व सस्कार के कारण और उस जन्म मे विशेष प्रकार की साधना करके तीर्थकर पद प्राप्त करते है। इसका अर्थ यह हुआ कि तीर्थकर हम मनुष्यो में से ही एक है और उनका सन्देश है कि यदि कोई उनकी तरह प्रयत्न करे तो वह तीर्थकर पद प्राप्त कर सकता है । मानवजाति मे ऐसे आत्मविश्वास की प्रेरणा करने वाले तीर्थकर है। अन्य धर्मो मे मनुष्य से भिन्न जाति के देव पूज्यता प्राप्त करते है, पर जैनधर्म में मनुष्य ऐसी शक्ति प्राप्त करते है, जिससे देव भी उनकी पूजा करते है धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मो सया मणो ॥ मनुष्य-जाति के पद की उत्कृष्टता का कथन महाभारत में आता है : 'न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्' (शान्तिपर्व २९९-२०) --मनुष्य की अपेक्षा कोई श्रेष्ठ नही है। मनुष्य की ऐसी प्रतिष्ठा करने मे जैन तीर्थकरो का हिस्सा अल्प नही है। जबतक तीर्थकरो का प्रभाव न था तबतक इन्द्र आदि देवो की पूजाप्रतिष्ठा आर्य करते रहे और अनेक हिसक-यज्ञो के अनुष्ठान द्वारा उन्हें प्रसन्न कर बदले मे सम्पत्ति मागते रहे । तीर्थकरो ने मानव की इस दीनता को हटाकर मनुष्य का भाग्य मनुष्य के हाथो मे सौपा। फलतः धार्मिक मान्यता मे नव-जागरण आया, मनुष्य अपनी सामर्थ्य पहचानने लगा और उसने इन्द्र आदि देवो की उपासना का परित्याग किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वैदिक आर्यों में भी राम और कृष्ण जैसे मनुष्यो की पूजा होने लगी, फिर भले ही कालक्रम ने उनको अवतारी पुरुष बना दिया हो । परन्तु मूल बात इतनी तो सच है कि देवो की अपेक्षा भी मनुष्य महान है, यह सन्देश तीर्थकरो ने ही आर्यों को दिया है। तीर्थकरो द्वारा प्रवर्तित धर्म का स्वरूप क्या है ? उसका हार्द क्या है ? --यह एक शब्द मे कहना हो तो कहेगे कि वह 'अहिंसा' है। आचार में अहिसा के दो रूप है : सयम और तप। सयम मे सवर अर्थाय सकोच आता है-शरीर का, मन का और वाणी का। संयम के कारण वह नये बन्धनो मे फसता नही और तप के द्वारा वह पुराने उपार्जित बन्धन काटPage Navigation
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