Book Title: Jain Dharm ka Pran Author(s): Sukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai Publisher: Sasta Sahitya Mandal Delhi View full book textPage 7
________________ भूमिका प्रस्तुत पुस्तक का नाम इसमे इसी नाम से मुद्रित एक लेख के आधार पर रखा गया है और वह सार्थक है। पण्डित सुखलालजी के लेखन की यह विशेषता है कि वे किसी भी विषय का ऊपर-ऊपर से निरूपण नही करते, परन्तु प्रतिपाद्य विषय के हार्द को पकडकर ही उसका निरूपण करते है। इसीसे इस पुस्तक मे किया गया सस्कृति, धर्म, दर्शन, जैनधर्म, जैनदर्शन जैनआचार जैसे विषयों का प्रतिपादन उस-उस विषय के हार्द का ही विशेषत स्पर्श करता है। धर्म आदि के बाह्य स्वरूप को तो सामान्यतः सब जानते है, क्योकि वह चर्मचक्षुओ से देखा जा सकता है, परन्तु उसके पीछे तत्त्व क्या है, इसकी जानकारी कम लोगों को होती है। इस पुस्तक मे जैनधर्म के तत्त्व की, परमार्थ कौ अथवा उसके हार्द की ही विशेष रूप से जानकारी प्रस्तुत की गई है। इससे इस पुस्तक मे जैनधर्म के बारे मे उसके अनुयायियो को भी बहुत कुछ नया जानने को मिलेगा और उनके बहुत-से भ्रम दूर होगे। जैनेतरो के लिए तो यह पुस्तक जैनधर्म-परिचय के लिए दीपक जैसी है, इसमें सन्देह नही। पण्डितजी के लेखन की दूसरी विशेषता यह है कि वे इतिहास एव तुलना को महत्त्व का स्थान देते है। धार्मिक समझे जानेवाले लोग अपने धर्म की बिना गहरी जानकारी के ही कहते है कि हमारा ही धर्म सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ है, परन्तु पण्डितजी इतिहास और तुलना द्वारा धार्मिक समझे जानेवाले लोगो की ऐसी समझ को सशोधित कर निर्मल बनाने का प्रयत्न करते है। इससे धर्म-निष्ठा मे क्षति आने के बदले वह जागरूक बनती है और सत्य तत्त्व की उपलब्धि के परिणामस्वरूप उसकी निष्ठा अधिक सुदृढ़ बनती है। पण्डितजी की निरूपण-पद्धति से पाठक मे विवेकबुद्धि जागृत होती है और रूढ़ मान्यताओं का परीक्षण करके हेयोपादेय का विवेक करने मे वह स्वय समर्थ बनता है। इस प्रकार पाठक की श्रद्धा को वे झकझोर कर एक बार तो उसकी बुनियाद को हिला देतेPage Navigation
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