Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 21
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/१९ में रहने के कारण मानो हवा ही हो और चित्त की शून्यता से मानो वह आकाशरूप ही हो गयी हो। मोह के कारण उसका ज्ञान भी आच्छादित हो गया था, सर्व अंग इतने दुर्बल हो गये थे कि उठना-बैठना भी दूभर हो गया था। बोलने की अभिलाषा करती, पर शब्द नहीं निकलते; पक्षियों से कलोल करने की भावना होती, पर वह भी दुष्कर था - इस प्रकार बेचारी सबसे न्यारी गुमसुम बैठी रहती। उसका चित्त तो पति में ही लगा था, उसको निष्कारण पति-वियोग के कारण एक-एक पल भी एक-एक वर्ष के समान प्रतिभासित होता था। उसे दुख से दुखित देखकर व्याकुलित हुये परिजन भी ऐसा चिन्तन करते थे – “इसे ऐसा दुख किस कारण से हुआ ? यह तो इसके द्वारा पूर्वोपार्जित पापकर्मों का ही फल है, अवश्य ही इसने पूर्व जन्म में किसी देव या गुरु की विराधना की होगी, उसी का यह फल है। पवनकुमार तो इस दशा में निमित्त मात्र हैं। अरे! इस बेचारी भोली-भाली से विवाह करके क्यों इसका परित्याग कर दिया, जिसने कभी पिता के घर में रंचमात्र दुख नहीं देखा, वही आज अथाह दुख को प्राप्त हुई है।" सभी इसीतरह विचार करते – “हम क्या उपाय करें ? अरे ! हम तो भाग्यहीन हैं, यह कार्य हमारे यत्नसाध्य नहीं है। यह तो इसके कोई अशुभकर्म का फल है। हे प्रभु! कब वह शुभ दिन आयेगा, जब यह अपने प्रीतम की कृपा-दृष्टि प्राप्त करेगी।" सभी की यही अभिलाषा रहा करती थी। ऐसे प्रतिकूल प्रसंग के समय अंजना देव-शास्त्र-गुरु की आराधना करते हुए – इन दुख के दिनों को व्यतीत कर रही थी। उसकी प्रिय सखी वसन्तमाला उसे प्रसन्न करने के लिये हर संभव प्रयत्न करती थी। वे कभी तो आत्मानुभवरूप सम्यग्दर्शन की चर्चा करतीं तो कभी देव-गुरु-धर्म की भक्ति करतीं, कभी वीतरागी संतों का स्मरण करते हुये उनकी

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