Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/७४ के लिए अन्तर में ही ढल गये हैं। देखो! यहाँ बिना आत्मा को जाने, बिना आत्मा को देखे, बिना आत्मा का अनुभव किये दीक्षा लेने या मुनिपना ग्रहण करने की बात नहीं है । यह तो नि:शंकपने अन्तर में देखे -जाने और अनुभव किये मार्ग पर, मुक्ति पद की साधना करने के लिए जिनने प्रयाण किया है - उनकी मुनिदशा की बात है।
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दोनों कुमारों को दीक्षा लेने के पहले ही विश्वास है कि “अपने चैतन्य पद में दृष्टि करके हमने अपनी मुक्ति का मार्ग पहले ही देख लिया है, उस चैतन्य पद में गहरे-गहरे उतरकर, उसमें लीन होकर हम इसी भव में ही अपने मोक्षपद को साधेगे। हमारा मार्ग अप्रतिहत (अबाधित) है, उस मार्ग में हमें शंका नहीं है, उसी प्रकार हम पीछे फिरने वाले भी नहीं हैं। अप्रतिहत (बिना गिरे) भाव से अन्तर स्वरूप में लीन हुए तो अब मोक्षपट को लेकर ही रहेंगे।" 1 - ऐसी भावना से मुनि होकर वे दोनों वन में विचरण करते होंगे और आत्मध्यान में अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करके केवलज्ञान के साथ केलि (क्रीड़ा) करते होंगे। इसप्रकार भावविभोर हो स्वामीजी भी भक्ति करने लगते हैं -