Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 79
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/७७ निश्चय तीर्थ स्वरूप शुद्धरत्नत्रय के स्मरण के लिए और उसका बहुमान करने के लिए ही यह तीर्थयात्रा है। तीर्थयात्रा का ऐसा भाव ज्ञानी धर्मात्माओं को तथा मुनिराजों को भी आता है। साथ ही उस भाव की मर्यादा कितनी है - यह भी वे जानते हैं। अहा, प्रात:काल इस पावागढ़ सिद्धक्षेत्र में आये, तब से लवकुश याद आ रहे हैं.... उनका जीवन मानो आँखों के सामने तैर रहा है। यद्यपि दोनों का विवाह हो चुका था, तथापि उन्हें अन्तर में यह भान था कि अरे, इस क्षणभंगुर संसार में कौन किसका पिता और कौन किसकी पत्नि ? कौन पुत्र और कौन माता ? “हम तो अब अपने नित्य चिदानन्द स्वभाव की गोद में जाते हैं....वही हमारी शरण है और उसी में हमारा विश्वास है, वहीं हम जायेंगे। अनित्य संयोगों का विश्वास हमें नहीं है, अत: वहाँ हम नहीं रहेंगे.... हमें निःशंक विश्वास है कि स्वभाव में ही हमारा सुख है और संयोगों में नहीं। अनादि से हमारे साथ रहनेवाला हमारा नित्य चिदानन्द स्वभाव, उसी का विश्वास करके अब हम उसी के पास जाकर रहेंगे....संयोगों से दूर हो जायेंगे....और स्वभाव के समीप जायेंगे....उस स्वभाव का मार्ग हमने देखा है....उस जाने हुए मार्ग में हम जायेंगे....और मुक्ति सुन्दरी का वरण करेंगे।" देखो, यह निःशंकता! धर्मात्मा को अन्तर में नि:शंक भान होता है कि हमने मुक्ति का मार्ग देखा है और हम उस मार्ग पर चल रहे हैं। “यह मार्ग होगा या अन्य कोई मार्ग होगा ? आत्मा ने सम्यग्दर्शन पाया होगा या नहीं" - ऐसा कोई संदेह धर्मी को नहीं होता। हमने स्वानुभव से मार्ग देखा है और उस देखे हुए मार्ग पर हमारा आत्मा चल रहा है - ऐसी धर्मात्मा को नि:शंक दृढ़ता होती है। . मार्ग के संबंध में ऐसे नि:शंक निर्णयपूर्वक दोनों राजकुमार दीक्षा

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