Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 29
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२७ तब सती अंजना संकोचपूर्वक हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगी - "हे प्राणनाथ ! अभी मेरा ऋतु समय है, अत: आपके समागम से मेरा गर्भधारण करना अवश्यम्भावी है। यह तो सभी को ज्ञात है कि आज तक मुझपर आपकी कृपादृष्टि नहीं रही, अत: मेरे हित के लिये आप माता-पिता से अपने आने का वृत्तान्त अवश्य कहते जायें।" ___पवनकुमार ने कहा- “हे प्रिये ! माता-पिता से तो मैं आज्ञा प्राप्त कर निकला हूँ, अत: अब उनके समीप जाकर यह बात कहते हुये मुझे लज्जा आती है। समस्त लोकजन भी मेरी इस चेष्टा को जान कर हँसी ही करेंगे, किन्तु तुम विश्वास रखो, तुम्हारे गर्भ के चिन्ह प्रगट हों, उससे पूर्व ही में वापस आ जाऊँगा, अत: तुम अपने चित्त को प्रसन्न रखना। फिर भी यदि कोई पूछे तो मेरे आगमन की प्रतीकरूप यह मेरे नाम की मुद्रिका एवं हाथ के कड़े रखो, आवश्यकता पड़ने पर ये मेरे आगमन की साक्षी देंगे और तुम्हें भी शान्ति रहेगी” – इस प्रकार मुद्रिका एवं कड़े अंजना को सौंपकर कुमार ने विदा ली और जाते-जाते वसन्तमाला को अंजना की भले प्रकार सेवा करने की आज्ञा दी। यहाँ से निकलकर दोनों मित्र आकाशमार्ग से विमान द्वारा मानसरोवर पर आ पहुँचे। इस घटना के रहस्य का परिज्ञान कराते हुये गौतम गणधर राजा श्रेणिक से कहते हैं- “हे श्रेणिक ! इस लोक में कभी उत्तम वस्तु के संयोग से किंचित् सुख का प्रतिभास होता है वह भी क्षणभंगुर है और देहधारियों को पापोदय से होने वाला दुख भी क्षणभंगुर है - इस प्रकार संयोगजन्य सुख-दुख दोनों ही क्षणभंगुर हैं, अतः इनमें हर्ष-विषाद का त्याग करना चाहिये। __ हे प्राणियो ! “यह जिनधर्म ही जीवों को वास्तविक सुख का प्रदाता एवं दुख रूप अन्धकार का नाशक है, अत: जिनधर्म रूपी सूर्य के प्रताप से मोहरूपी अन्धकार का नाश करो।"

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