Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४,
-४/६६
I
कुमार तो एकदम शान्त मौन से इस प्रकार बैठे थे, मानो वे काठ के पुतले हों । विद्याधरों के अनेक प्रयत्न भी उनके चिन्तवन युक्त मौन को न तोड़ सके। जैसे ध्यानमग्न मुनिराज किसी से चर्चा - वार्ता नहीं करते, वही स्थिति इस समय कुमार की थी ।
पवनंजय के माता-पिता उसका मस्तक चूमकर अश्रुपूरित नेत्रों से गद्गद्वाणी में उससे कहने लगे - " हे पुत्र ! हे विनयवान !! तू हमें त्यागकर यहाँ क्यों आया ? तू तो राजमहल का वासी है, इस वन में तूने रात्रि कैसे व्यतीत की। हे पुत्र ! तू मौन क्यों है ?"
- इस प्रकार उन्होंने हरसंभव प्रयत्न किया, पर कुमार ने एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया ।
तब 'इसने मौनव्रत धारण कर अब मरण का ही निश्चय किया है' – ऐसा समझकर समस्त विद्याधरों को महाशोक हुआ और पिता सहित सभी विलाप करने लगे ।
तभी अंजना के मामा राजा प्रतिसूर्य कुमार के समीप आकर कहने लगे – “सभी शान्त हो जाओ। मैं वायुकुमार (पवनकुमार ) के साथ वचनालाप करूँगा । " - इतना कहकर वे कुमार के एकदम समीप गये और उसके कान में कहने लगे - "हे कुमार ! सुनो, मैं तुम्हें अंजना का वृत्तान्त सुनाता हूँ –
"संध्याभ्र नामक सुन्दर पर्वत पर अनंग - विजय नामक मुनि को केवलज्ञान होने पर इन्द्रादिक देव उनके दर्शनार्थ पधारे थे, उस समय मैं भी वहाँ पहुँचा था । केवलीप्रभु की वन्दना करने के उपरान्त जब मैं वापस अपने नगर की तरफ आ रहा था, तब मेरा विमान एक गुफा के ऊपर आया तो मैंने उस गुफा में से आता एक नारी का स्वर सुना, गुफा में पहुँचकर देखा तो वहाँ अंजना थी। जब मैंने उससे वनवास का कारण पूछा तो उसकी सखी ने मुझे सम्पूर्ण स्थिति से अवगत कराया। अंजना