Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/५५
गिरा। बालक के गिरते ही उसकी माता ( अंजना ) हाहाकार करने लगी । राजा प्रतिसूर्य ने तत्काल विमान को पृथ्वी पर उतार दिया।
अंजना के दीनतापूर्वक विलाप के स्वर सुनकर जानवरों के हृदय भी करुणा से द्रवित हो उठे - " हे पुत्र ! यह क्या हुआ ? अरे ! यह भाग्य का खेल भी कितना निराला है, पहले तो मुझे रत्नों से परिपूर्ण निधान बताया और पश्चात् मेरे रत्न को हरण कर लिया । हा ! कुटुम्ब के वियोग से व्याकुलित मुझ दुखिया का यह पुत्र ही तो एकमात्र सहारा था, यह भी मेरे पूर्वोपार्जित कर्मों ने मुझसे छीन लिया । हाय पुत्र ! तेरे बिना अब मैं क्या करूँगी ?”
इस प्रकार इधर तो अंजना विलाप कर रही थी और उधर पुत्र हनुमान जिस पत्थर की शिला पर गिरा था, उस पत्थर के हजारों टुकड़े हो गये थे, जिसकी भयंकर आवाज को सुनकर राजा प्रतिसूर्य ने वहाँ जाकर देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा ।
'क्या देखा उन्होंने ?' उन्होंने देखा कि बालक तो एक शिला पर आनन्द से मुँह में अपना अँगूठा लेकर स्वत: ही क्रीड़ा कर रहा है, मुख पर मुस्कान की रेखा स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है, अकेला पड़ा पड़ा शोभित हो रहा है। अरे ! जो कामदेव पद का धारक है, उसके शरीर की उपमा किससे दी जावे, उसका शरीर तो सुन्दरता में अनुपम होगा ही ।
दूर से ही बालक की ऐसी दशा देखकर राजा प्रतिसूर्य को अपूर्व आनन्द हुआ। जिसने अपने प्रताप से पर्वत के खण्ड-खण्ड कर दिये, जिसका आत्मा धर्म से युक्त है और जिसका शरीर तेजस्वी है - ऐसे निर्दोष बालक को आनन्द से क्रीड़ा करते हुये देखकर अंजना को भी अपूर्व आनन्द हुआ। उसने अत्यन्त स्नेहपूर्वक उसके सिर का चुंबन किया और छाती से लगा लिया ।
इस आश्चर्यकारी दृश्य से हर्षित हो राजा प्रतिसूर्य अंजना से कहने